Book Title: Jain Darshan me Praman Mimansa
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Mannalal Surana Memorial Trust Kolkatta

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Page 191
________________ जैन दर्शन में प्रमाण भीमासा [१३ स्थापना दो प्रकार की होती है-(१) सद्भाव (तदाकार) स्थापना (२) असद्भाव (अतदाकार) स्थापना। एक व्यक्ति अपने गुरु के चित्र को गुरु मानता है, यह सद्भाव-स्थापना है। एक व्यक्ति ने शंख में अपने गुरु का आरोप कर दिया, यह असद्भाव-स्थापना है । नाम और स्थापना दोनों वास्तविक अर्थ शून्य होते हैं। द्रव्य-निक्षेप अतीत-अवस्था, भविष्यत्-अवस्था और अनुयोग-दशा-ये तीनो विवक्षित क्रिया में परिणत नही होते। इसलिए इन्हे द्रव्य-निक्षेप कहा जाता है। भाव-शन्यता वर्तमान-पर्याय की शन्यता के उपरान्त भी जो वर्तमान पर्याय से पहचाना जाता है, यही इसमे द्रव्यता का आरोप है। भाव-निक्षेप वाचक द्वारा संकेतित क्रिया में प्रवृत्त व्यक्ति को भाव-निक्षेप कहा जाता है । इनमें (द्रव्य और भाव निक्षेप में ) शब्द व्यवहार के निमित्त जान और क्रिया-ये दोनों बनते हैं। इसलिए इनके दो-दो भेट होते हैं(१,२) जानने वाला द्रव्य और भाव । (३,४) करने वाला द्रव्य और भाव । ज्ञान की दो दशाएं होती हैं-(१) उपयोग-दत्तचित्तता। (२) अनुपयोग-दत्तचित्तता का अभाव । अध्यापक शब्द का अर्थ जानने वाला उसके अर्थ में उपयुक्त (दत्तचित्त) नहीं होता। इसलिए वह आगम या जानने वाले की अपेक्षा द्रव्य-निक्षेप है। अध्यापक शब्द का अर्थ जानता था, उसका शरीर 'ज-शरीर' कहलाता है और उसे आगे जानेगा, उसका शरीर भव्य-शरीर' ये भूत और भावी पर्याय के कारण है, इसलिए द्रव्य है। __वस्तु की उपकारक सामग्री में वस्तुवाची शब्द का व्यवहार किया जाता है, वह 'तद्-व्यतिरिक्त' कहलाता है। जैसे अध्यापक के शरीर को अध्यापक वहना अथवा अध्यापक की अध्यापन के समय होने वाली हन्त-सफेत आदि क्रिया को अध्यापक कहना। 'ज-शरीर में अध्यापक शब्द का अर्थ जानने

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