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जैन दर्शन में प्रमाण मोमासां
पर्याय दृष्टि की अपेक्षा-"सत् का विनाश और असत् का उत्पाद होता है १४ ॥ कारण-कार्य जानने की पद्धति
कारण-कार्य का सम्बन्ध जानने की पद्धति को अन्वय-व्यतिरेक पद्धति कहा जाता है। जिसके होने पर ही जो होता है, वह अन्चय है और जिसके विना जो नही होता, वह व्यतिरेक है-ये दोनो जहाँ मिले, वहाँ कार्य-कारण भाव जाना जाता है। परिणमन के हेतु
जो परिवर्तन काल और स्वभाव से ही होता है, वह स्वाभाविक या अहेतुक कहलाता है। "प्रत्येक कार्य कारण का आभारी होता है" यह तर्कनियम सामान्यतः सही है किन्तु स्वभाव इसका अपवाद है। इसीलिए उत्पाद के दो रूप बनते है :
(१) स्व-प्रत्यय-निष्पन्न, वैनसिक या स्वापेक्ष परिवर्तन । (२) पर-प्रत्यय-निष्पन्न, प्रायोगिक या परापेक्ष-परिवर्तन ।
गौतम.. भगवान् ! (१) क्या अस्तित्व अस्तित्वरूप में परिणत होता है ? (२) नास्तित्व नास्तित्वरूप में परिणत होता है ?
भगवान् .. हाँ, गौतम ! होता है।
गौतम ..... भगवन् !! क्या (३) स्वभाव से अस्तित्व, अस्तित्वरूप में परिणत होता है या प्रयोग (जीवन-च्यापार ) से अस्तित्व अस्तित्व-रूप में परिणत होता है ? (v) क्या स्वभाव से नास्तित्व नास्तित्व-रूप में परिणत होता है या प्रयोग (जीवन-व्यापार) से नास्तित नास्तित्व रूप में परिणत होता है ? ___ भगवान् गौतम ! स्वभाव से भी अस्तित्व अस्तित्वरूप में, नास्तित्व नास्तित्वरूप में परिणत होता है और परमाव से भी अस्तित्व अस्तित्वरुप में और नास्तित्व नास्तित्वल्प में परिणत होता है। [भग० १-३]
वैभाविक परिवर्तन प्रायः पर-निमित्त से ही होता है। मृद-द्रव्य का पिंडरूप अस्तित्व कुम्हार के द्वारा घटरूप अस्तित्व में परिणत होता है। मिट्टी का नास्तित्व-तन्तु ससुदय, जुलाहे के द्वारा मिट्टी के नास्तित्ल कपड़े के