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जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा
मार्क्स के धर्म परिवर्तन की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया के सिद्धान्त में कार्य-कारण का निश्चित नियम नहीं है। वह पदार्थ का परिवर्तन मात्र स्वीकार नहीं करता। उसका सर्वथा नाश और सर्वथा उत्पाद भी स्वीकार करता है। जो पहले था, वह आज भी है और सदा वैसा ही रहेगा-इसे वह समाज के विकास में भारी रुकावट मानता है। 'सच तो यह है कि 'जो पहले था; वह
आज भी है और सदा वैसा ही रहेगा'-"वाली धारणा का हमे लगभग सव जगह सामना करना पड़ता है और व्यक्तियो और समाज के विकास में भारी रुकावट पड़ती है।"
[मार्क्सवाद पृष्ठ ७२ ] किन्तु यह आशंका कार्य-कारण के एकांगी रूप को ग्रहण करने का परिणाम है, जो था, है और वैसा ही रहेगा- यह तत्त्व के अस्तित्व याकारण की व्याख्या है। कार्य-कारण के सम्बन्ध की व्याख्या में पदार्थ परिणाम स्वभाव है। पूर्ववत्तीं और परवची में सम्बन्ध हुए बिना कार्यकारण की स्थिति ही नहीं बनती। परवी पूर्ववर्ती का ऋणी होता है, पूर्ववत्ती परवत्ती में अपना संस्कार छोड़ जाता है । यह शब्दान्तर से 'परिणामि-नित्यत्व