Book Title: Jain Darshan me Praman Mimansa
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Mannalal Surana Memorial Trust Kolkatta

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Page 204
________________ १९६] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा है और कारण का नाश । कारण ही अपना रूप त्याग कर कार्य को रूप देता है, इसीलिए कारण के अनुरूप ही कार्य की उत्पत्ति का नियम है। सत् से सत् पैदा होता है । सत् असत् नही बनता और असत् सत् नहीं बनता। जो कार्य जिस कारण से उत्पन्न होगा, वह उसी से होगा, किसी दूसरे से नहीं । और कारण भी जिसे उत्पन्न करता है उसी को करेगा, किसी दूसरे को नहीं। एक कारण से एक ही कार्य उत्पन्न होगा। कारण और कार्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसीलिए कार्य से करण का और कारण से कार्य का अनुमान किया जाता है । एक कार्य के अनेक कारण और एक कारण से अनेक कार्य बनें यानि बहु-कारणवाद या बहु-कार्यवाद माना जाए तो कारण से कार्य का और कार्य से कारण का अनुमान नही हो सकता। विविध विचार कार्य-कारणवाद के बारे में भारतीय दर्शन की अनेक धाराए है-न्यायवैशेषिक कारण को सत् और कार्य को असत् मानते हैं, इसलिए उनका कार्यकारण-वाद 'श्रारम्भवाद या असत्-कार्यवाद' कहलाता है। सांख्य कार्य और कारण दोनों को सत् मानते हैं, इसलिए उनकी विचारधारा-'परिणामवाद या सत् कार्यवाद' कहलाती है। वेदान्ती कारण को सत् और कार्य को असत् मानते हैं, इसलिए उनके विचार को "विवर्त्तवाद या सत्-कारणवाद" कहा जाता है। वौद्ध असत् से सत् की उत्पत्ति मानते हैं, इसे 'प्रतीत्यसमुत्पाद' कहा जाता है। बौद्ध असत् कारण से सत् कार्य मानते हैं, उस स्थिति में वेदान्ती सत्कारण से असत् कार्य मानते हैं। उनके मतानुसार वास्तव में कारण और कार्य एक रूप हों, तब दोनों सत् होते हैं । कार्य और कारण को पृथक् माना जाए, तव कारण सत् और आभासित कार्य असत् होता है। इसी का नाम "विवर्तवाद' है। (१) कार्य और कारण सर्वथा भिन्न नहीं होते। कारण कार्य का ही पूर्व • 'रूप है और कार्य कारण का उत्तरस्प। असत् कारवाद के अनुसार कार्य,

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