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लक्षण
समयं वस्तुनो रूपं, प्रमाणेन प्रमीयते ।
असङ्कीर्ण स्वरूपं हि, लक्षणेनावधार्यते ॥ अर्थ-सिद्धि के दो साधन है-लक्षण और प्रमाण । प्रमाण के द्वारा वस्तु के स्वरूप का निर्णय होता है । लक्षण निश्चित स्वरूप वाली वस्तुओं को प्रेणीबद्ध करता है। प्रमाण हमारा ज्ञानगत धर्म है, लक्षण वस्तुगत धर्म । यह जगत् अनेकविध पदार्थों से सकुल है। हमे उनमें से किसी एक की अपेक्षा होती है, तव उसे औरों से पृथक् करने के लिए विशेष-धर्म बताना पड़ता है, वह लक्षण है । लक्षण में लक्ष्य-वस्तु के स्वभाव धर्म, अवयव अथवा अवस्था का उल्लेख होना चाहिए। इसके द्वारा हम ठीक लक्ष्य को पकड़ते हैं, इसलिए इसे व्यवछेदक (व्यावर्तक ) धर्म कहते हैं। व्यवछेदक धर्म वह होता है जो वस्तु की स्वतन्त्र सत्ता (असंकीर्ण व्यवस्था) बतलाए। स्वतन्त्र पदार्थ वह होता है, जिसमें एक विशेष गुण (दूसरे पदार्थो मे न मिलने वाला गुण) मिले। स्वभावधर्म : लक्षण
चैतन्य जीव का स्वभाव धर्म है। वह जीव की स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करता है, इसलिए वह जीव का गुण है ओर वह हमे जीव को अजीव से पृथक् समझने में सहायता देता है, इसलिए वह जीव का लक्षण वन जाता है। अवयव-लक्षण
सास्ना (गलकम्बल ) गाय का अवयव विशेष है। वह गाय के ही होता है और पशुओं के नही होता, इसलिए वह गाय का लक्षण बन जाता है। जो आदमी गाय को नहीं जानता उसे हम 'सास्ना चिह' समझा कर गाय का जान करा सकते हैं। अवस्था-लक्षण
दस आदमी जा रहे हैं। उनमें से एक आदमी को बुलाना है। जिसे बुलाना है, उसके हाथ में डण्डा है। आवाज हुई-"डण्डे वाले श्रादमी !