________________
१९०
जैन दर्शन मे प्रमाण मीमासां
आओ।" दस में से एक आ जाता है। इसका कारण उसकी एक विशेष अवस्था है।
अवस्था-लक्षण स्थायी नहीं होता। डण्डा हर समय उसके पास नहीं रहता। इसलिए इसे कादाचित्क लक्षण कहा जाता है। इसका दूसरा नाम अनात्मभूत लक्षण भी है। कुछ समय के लिए भले ही, किन्तु यह वस्तु का व्यवछेद करता है, इसलिए इसे लक्षण मानने में कोई आपत्ति नही
आती। ___ पहले दो प्रकार के लक्षण स्थायी (वस्तुगत ) होते हैं, इसलिए उन्हे 'आत्मभूत' कहा जाता है। लक्षण के दो रूप
विषय के ग्रहण की अपेक्षा से लक्षण के दो रूप बनते है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । ताप के द्वारा अनि का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, इसलिए 'ताप अग्नि का प्रत्यक्ष लक्षण है। धूम के द्वारा अग्नि का परोक्ष ज्ञान होता है, इसलिए 'धूम' अग्नि का परोक्ष लक्षण है। लक्षण के तीन दोष-लक्षणामास
किसी वस्तु का लक्षण बनाते समय हमे तीन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। लक्षण (१) श्रेणी के सब पदाथों में होना चाहिए। , (२) श्रेणी के वाहर नही होना चाहिए ।
, (३) श्रेणी के लिए असम्भव नही होना चाहिए। लक्षणाभास के उदाहरण
(१) "पशु सीग वाला होता है"-यहाँ पशु का लक्षण सींग है। यह लक्षण पशु जाति के सव सदस्यो मे नही मिलता। "घोड़ा एक पशु है किन्तु उसके सींग नही होते" इसलिए यह 'अन्यात दोष' है।
(२) "वायु चलने वाली होती है। इसमें वायु का लक्षण गति है। यह वायु में पूर्ण रूप से मिलता है किन्तु वायु के अतिरिक्त दूसरी वस्तुओं मे भी मिलता है। "घोड़ा वायु नही, फिर भी वह चलता है। इसलिए यह 'अतिव्यात दोप' है।