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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
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अज्ञान का हेतु सत्-असत् का अविशेष बतलाया है ४९ । इससे भी यह फलित नही होता कि मिथ्या-दृष्टि का शान मात्र विपरीत है या उसका ज्ञान विपरीत ही होता है, इसलिए उसकी संज्ञा अज्ञान है । सत्-असत् के अविशेष का सम्बन्ध उसकी यदृच्छोपलब्ध वात्त्विक प्रतिपत्ति से है । मिथ्या दृष्टि की तत्त्व-श्रद्धा या तत्त्व उपलब्धि यादृच्छिक या अनालोचित होती है, वहाँ उसके मिथ्यात्व या उन्माद होता है किन्तु उसके इन्द्रिय और मानस का विषय बोध मिथ्यात्व या उन्माद नहीं होता। वह मिथ्यात्व से अप्रभावित होता है केवल ज्ञानावरण के विलय से होता है । इसके अतिरिक्त मिथ्या दृष्टि में सत्-असत् का विवेक होता ही नहीं, यह एकान्त भी कर्म-सिद्धान्त के प्रतिकूल है। दृष्टि मोह के उदय से उसकी तात्त्विक प्रतिपत्ति मे उन्माद आता है, उससे उसकी दृष्टि या श्रद्धा मिथ्या वनती है, किन्तु उसमें दृष्टि मोह का क्षयोपशम भी होता है। ऐसा कोई भी प्राणी नही होता, जिसमें दृष्टि-मोह का न्यूनाधिक विलय (क्षयोपशम) न मिले।
जैन आगमी में मिथ्या-दृष्टि या मिथ्या दर्शन शब्द व्यक्ति और गुण दोनो के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जिसकी दृष्टि मिथ्या होती है, वह व्यक्ति मिथ्या दृष्टि होता है । गुणवाची मिथ्या दृष्टि शब्द का प्रयोग, दृष्टि मोह के उदयजनित मिथ्यात्व के अर्थ में भी होता है और मिथ्यात्व-सहचरित दृष्टि-मोह के विलय के अर्थ में भी । तात्पर्य कि मिथ्या-दृष्टि व्यक्ति में यावन्मात्र उपलब्ध सम्यग्दृष्टि के अर्थ में मी५२ ।
मिथ्या दृष्टि में दृष्टि-मोह जनित मिथ्यात्व होता है, वैसे ही दृष्टि-मोह विलय जनित सम्यग् दर्शन भी होता है। इसीलिए उसमें "मिथ्या दृष्टिगुणस्थान नामक पहला गुण-स्थान होता है। गुण-स्थान आध्यात्मिक शुद्धि की भूमिकाएं हैं५३ । कर्म-ग्रन्थ की वृत्ति में दृष्टि मोह के प्रबल उदय काल में भी अविपरीत दृष्टि स्वीकार की है और आंशिक सम्यग-दर्शन भी माना है ५४ । जयाचार्य का भी यही मत है-"मिथ्यात्वी जो शुद्ध जानता है, वह शानावरण का विलय-भाव है । उसका सब ज्ञान विकृत या विपरीत नही होता, किन्तु दृष्टि-मोह-संवलित ज्ञान ही वैसा होता है५५ "
मिथ्या-दृष्टि में मिथ्या दर्शन और सम्यग दर्शन दोनों होते हैं, फिर भी
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