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जैन दर्शन में प्रमाण मोमासा [११९ । स्यावाद विरोध लाता नहीं किन्तु अविरोधी धर्मों में जो विरोध जगता है, उसे मिटाता है 31
११) जिस रूप से वस्तु सत् है, उसी रूप से वस्तु असत् मानी जाए रे विरोध पाता है। जैन दर्शन यह नही मानता। वस्तु को स्व-रूप से सत्
और पर-रूप से असत् मानता है। शंकराचार्य और भास्कराचार्य ने जो एक ही वस्तु को एक ही रूप से सत्-असत् मानने का विरोध किया है, वह जैन दर्शन पर लागू नही होता
हिन्दू विश्वविद्यालय बनारस के संस्कृत कॉलेज के प्रिन्सीपल निखिल विद्यावारिधि पण्डित अम्बादासजी शास्त्री ने स्यावाद में दीखने वाले विरोध को आपाततः सन्देह बताते हुए लिखा है-"यहाँ पर आपाततः प्रत्येक व्यक्ति को यह शका हो सकती है कि इस प्रकार परस्पर विरोधी धर्म एक स्थान पर कैसे रह सकते हैं और इसी से वेदान्त सूत्र में व्यासजी ने एक स्थान पर लिखा है-'नैकस्मिन्नसम्भवात्-अर्थात् एक पदार्थ मे परस्पर विरुद्ध नियानित्यत्वादि नही रह सकते। परन्तु जैनाचार्यों ने स्यादवाद-सिद्धान्त से इन परस्पर विरोधी धर्मों का एक स्थान में भी रहना सिद्ध किया है। और वह युक्तियुक्त भी है क्योकि वह विरोधी धर्म विभिन्न अपेक्षाओ से एक वस्तु में रहते हैं, न कि एक ही अपेक्षा से 31"
प्रो० फणिभूषण अधिकारी (अध्यक्ष-दर्शन शास्त्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) के शब्दों में-"विद्वान् शंकराचार्य ने इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय किया। यह वात अन्य योग्यता वाले पुरुषो में क्षम्य हो सकती थी किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मै भारत के इस महान् विद्वान् को सर्वथा अक्षम्य ही कहूंगा। यद्यपि मै इश महर्षि का अतीव आदर की दृष्टि से देखता हूँ ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के, जिसके लिए अनादर से 'विवसन-समय' अर्थात् नग्न लोगो का सिद्धान्त ऐमा नाम वे रखते हैं, दर्शन शास्त्र के मूल ग्रन्थो के अध्ययन की परवाह नहीं की।" ।
(२) वस्तु के 'सत्' अंश से उसमे है' शब्द की प्रवृत्ति होती है, वैसे ही उसके असत् अंश से उसमें 'नहीं' शब्द की प्रवृत्ति होने का निमित्त