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१३४] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा समन्वय की दिशा
(अपेक्षावाद समन्वय की ओर गति है। इसके आधार पर परस्पर विरोधी मालूम पड़ने वाले विचार सरलतापूर्वक सुलझाए जा सकते हैं। )मध्ययुगीन दर्शन प्रोताओं की गति इस ओर कम रही। यह दुःख का विषय है । जैन दार्शनिक नयवाद के ऋणी होते हुए भी अपेक्षा का खुलकर उपयोग नहीं कर सके, यह अत्यन्त खेद की बात है। यदि ऐसा हुआ होता तो सत्य का मार्ग इतना कंटीला नहीं होता। __समन्वय की दिशा बताने वाले श्राचार्य नहीं हुए, ऐसा भी नही। अनेक
आचार्य हुए हैं, जिन्होंने दार्शनिक विवादों को मिटाने के लिए प्रचुर श्रम किया। इनमें हरिभद्र श्रादि अग्रस्थानीय हैं। ___ आचार्य हरिभद्र ने कर्तृत्ववाद का समन्वय करते हुए लिखा है-"आत्मा में परम ऐश्वर्य, अनन्त शक्ति होती है, इसलिए वह ईश्वर है और वह कर्ता है। इस प्रकार कर्तृत्ववाद अपने आप व्यवस्थित हो जाता है।" ___ जैन ईश्वर को कर्त्ता नहीं मानता, नैयायिक आदि मानते हैं। अनाकार ईश्वर का प्रश्न है, वहाँ तक दोनों में कोई मतभेद नहीं। नैयायिक ईश्वर के साकार रूप में कर्तृत्व बतलाते हैं और जैन मनुष्य में ईश्वर बनने की क्षमता बतलाते हैं। नैयायिकों के मतानुसार ईश्वर का साकार अवतार कर्ता और जैन दृष्टि में ऐश्वर्य-शक्ति सम्पन्न मनुष्य कर्ता, इस विन्दु पर सत्य अभिन्न हो जाता है, केवल विचार-पद्धति का भेद रहता है।
V परिणाम, फल या निष्कर्ष हमारे सामने होते हैं, उनमें विशेष विचार-भेद नहीं होता । अधिकांश मतमेद निमित्त, हेतु या परिणाम सिद्धि की प्रक्रिया मे होते हैं। बाहरण के लिए एक तथ्य ले लीजिए-श्वर कर्तृत्ववादी संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय मानते हैं। जैन, बौद्ध आदि ऐसा नहीं मानते। दोनो विचारधाराओं के अनुसार जगत् अनादि-अनन्त है। जैन-दृष्टि के अनुसार असत् से सत् और वौद्ध-दृष्टि के अनुसार सत्-प्रवाह के विना सत् उत्पन्न नहीं होता । यह स्थिति है। इसमें सब एक हैं। जन्म और मृत्यु, • उत्पाद और नाश वरावर चल रहे हैं, इन्हे कोई अर्वकार नहीं कर सक्ता। अब भेद रहा सिर्फ़ इनकी निमित्त प्रक्रिया में। सृष्टिवादियों के दृष्टि,