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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा (६) समभिरूढ व्युत्पत्ति से होने वाली शब्द की प्रवृत्ति का अभिप्राय
सममिरूढ़ नय है। (७) एवम्भूत-पातमानिक या तत्कालभावी व्युत्पत्ति से होने वाली शब्द
की प्रवृत्ति का अभिप्राय एवम्भुत नय है। इस प्रकार सात नयों में शाब्दिक और आर्थिक, वास्तविक और व्यावहारिक द्राव्यिक और पार्यायिक, सभी प्रकार के अभिप्राय संग्रहीत हो जाते है, इसलिए प्रत्येक नय का विशद रूप समझना आवश्यक है। नैगम
तादात्म्य की अपेक्षा से ही सामान्य-विशेष की भिन्नता का समर्थन किया जाता है। यह दृष्टि नैगमनय है। यह उभयनाही दृष्टि है। सामान्य और विशेष, दोनो इसके विषय है। इससे सामान्य-विशेषात्मक वस्तु के एक देश का बोध होता है। सामान्य और विशेष स्वतन्त्र पदार्थ है--इस कणाददृष्टि को जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता। कारण, सामान्य रहित विशेष और विशेष रहित सामान्य की कहीं भी प्रतीति नहीं होती। ये दोनो पदार्थ के धर्म है । एक पदार्थ की दुसरे पदार्थ, देश और काल में जो अनुवृत्ति होती है, वह सामान्य-अंश है और जो व्यावृत्ति होती है, वह विशेष अश। केवल अनुवृत्ति रूप या केवल ब्यावृत्ति-रूप कोई पदार्थ नहीं होता। जिस पदार्थ की जिस समय दूसरों से अनुवृत्ति मिलती है, उसकी उसी समय दूसरों से व्यावृत्ति भी मिलती है।
सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ का ज्ञान प्रमाण से हो सकता है। अखण्ड वस्तु प्रमाण का विषय है। नय का विषय उसका एकांश है। नैगम नय बोध कराने के अनेक मार्गों का स्पर्श करने वाला है, फिर भी प्रमाण नहीं है। प्रमाण में सब धर्मों को मुख्य स्थान मिलता है। यहाँ सामान्य के मुख्य होने पर विशेष गौण रहेगा और विशेष के मुख्य बनने पर सामान्य गोण। दोनों को यथा स्थान मुख्यता और गौणता मिलती है। संग्रहनय केवल सामान्य अंग 'का ग्रहण करता है और व्यवहारनय केवल विशेष अंश का) नैगम नय दोनों (सामान्य-विशेष) की एकाश्रयता मा साधक है।