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१७२] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
आचार्य मलयगिरि नयवाक्य को मिथ्या मानते हैं । इनकी दृष्टि में नयान्तर-निरपेक्ष नय अखण्ड वस्तु का ग्राहक नहीं होने के कारण मिथ्या है। 'नयान्तर-सापेक्ष नय 'स्यात्' शब्द से जुड़ा हुआ होगा, इसलिए वह वास्तव में नय-वाक्य नही, प्रमाण-वाक्य है। इसलिए उनके विचारानुसार 'स्यात्' शब्द का प्रयोग प्रमाण-वाक्य के साथ ही करना चाहिए।
सिद्धसेन दिवाकर की परम्परा में भी नय-वाक्य का रूप "स्यादस्त्येव" यही मान्य रहा है ।।
प्राचार्य हेमचन्द्र और वादिदेव सूरि ने नय को केवल "सत्" शब्द गम्थ माना है। उन्होने 'स्यात्' का प्रयोग केवल प्रमाण-वाक्य के साथ किया है। "अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका" के अनुसार
सत् एव-दुर्नय । सत्-नय - - - - स्यात् सत्-प्रमाणवाक्य है।
"प्रमाणनयतत्वालोक" में नय, दुनय का रूप द्वात्रिंशिका' जैसा ही है। प्रमाण वाक्य के साथ 'एच' शब्द जोड़ा है, इतमा सा अन्तर है। पंचालिकाय की टीका में 'एवं' शब्द को दोनों वाक्य-पद्धतियो से जोड़ा है, जब कि प्रवचनसार की टीका में सिर्फ नय-ससभनी के लिए 'एवकार' का निर्देश किया है। वास्तव में 'स्यात्' शब्द अनेकान्त-द्योतन के लिए है और 'एव' शब्द अन्य धर्मों का व्यवच्छेद करने के लिए। केवल 'एवकार के प्रयोग में ऐकान्तिकता का दोष आता है। उसे दूर करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग आवश्यक बनता है (नयवाक्य में विवक्षित धर्म के अतिरिक्त धर्मों में उपेक्षा की मुख्यता होती है, इसलिए कई आचार्य उसके साथ 'स्यात्' और 'एव' का प्रयोग
आवश्यक नही मानते। कई आचार्य विवक्षित धर्म की निश्चायकता के लिए 'एवं' और शेष धर्मों का निराकरण न हो, इसलिए 'स्यात्' इन दोनों के प्रयोग को आवश्यक मानते हैं नय की त्रिभगी या सप्तभंगी
(१) सोना एक है......(द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से) १२) सोना अनेक है......(पर्यायाथिकनय की दृष्टि से)