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जैन दर्शन में प्रमाण मौमांसा [१७७ जीव की क्रिया को साक्षात् देखता है पर क्रिया के हेतु भूत कर्म परमाणुओं को साक्षात् नहीं देख पाता, इसलिए वह ऐसा सिद्धान्त स्थापित करता है"जीव निया प्रेरित ही है, क्रिया ही उसका आवरण है। जो लोग क्रिया को
म न्हते हैं, वह मिथ्या है-यह जीव क्रिया वरणवाद है। __ देवों के गह्य और ब्राभ्यन्तर पुदगली की सहायता से मांति-भाति के रूप देख जो इस प्रकार सोचता है कि जीव पुदगल-रूप ही है। जो लोग कहते हैं कि जीव पुद्गल-स्प नहीं है, वह मिथ्या है- यह मुबग्गपुद्गल जीववाद है।
देवों के द्वारा निर्मित विविध स्पा को देखता है किन्तु वाह्याभ्यन्तर पुद्गलों के द्वारा उन्हे निर्मित होते नहीं देख पाता। वह सोचता है कि जीव का शरीर वाह्य और श्राभ्यन्तर पुद्गलों से रचित नहीं है जो लोग कहते हैं कि नीव का शरीर वाह्य और आभ्यन्तर पुद्गलों से रचित है, वह मिथ्या हैयह अमुयमा पुद्गल विद्युक्तनीववाद है।
देवों को विक्रियात्मक शक्ति के द्वारा नाना नीव-त्पी की सृष्टि करते देख जो सोचता है कि जीव मूर्त है और जो लोग जीव को अमूर्त कहते हैं, वह मिथ्या है—यह जीव-रूपि वाद है।
सूक्ष्म वायु काय के पुद्गला में एजन, व्येजन, चलन, क्षोभ, स्पन्दन, घट्टन, उदीरप आदि विविध मावों में परिणमन होते देख वह सोचता है कि सब नीव ही जीव हैं। जो श्रमण जीव और अजीव-ये दो विमाग करते हैं, वह मिथ्या है-जिनमे एजन यावत् विविध भावो की परिणति है, उनमें से केवल पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु को जीव मानना और शेप (गतिशील तत्वो) को नीव न मानना मिथ्या है यह सर्व जीव बाद है ५११