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जैन दर्शन मैं प्रमाण मौमासा
का नहीं-यह नियम नही बनता । (देश, काल और संकेत आदि की विचित्रता से सव शब्द दूसरे-दूसरे पदार्थों के वाचक वन सकते हैं। अर्थ में भी अनन्तधर्म होते हैं, इसलिए वे भी दूसरे-दूसरे शब्दो के वाच्य बन सकते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि शब्द अपनी सहज शक्ति से सब पदार्थों के वाचक हो सकते हैं किन्तु देश, काल, क्षयोपशम आदि की अपेक्षावश उनसे प्रतिनियत प्रतीति होती है। इसलिए शब्दो की प्रवृत्ति कही व्युत्पत्ति के निमित्त की अपेक्षा किये विना मात्र रूढ़ि से होती है, कही सामान्य.व्युत्पत्ति-की-अपेक्षासे और कहीं तत्कालवर्ती व्युत्पत्ति की अपेक्षा से। इसलिए वैयाकरण शब्द में नियत अर्थ का आग्रह करते हैं, वह सत्य नहीं है। एकान्तवाद : प्रत्यक्षज्ञान का विपर्यय
जैसे परोक्ष-ज्ञान विपरीत या मिथ्या होता है, वैसे प्रत्यक्ष ज्ञान भी विपरीत या मिथ्या हो सकता है। ऐसा होने का कारण एकान्त-वादी दृष्टिकोण है। कई बाल-तपस्वियो (अज्ञान पूर्वक तप करने वालों) को तपोवल से प्रत्यक्षशान का लाभ होता है। वे एकान्तवादी दृष्टि से उसे विपर्यय या मिथ्या रूप से परिणत कर लेते हैं। उसके सात निदर्शन बतलाए गए हैं :
(१) एक-दिशि-लोकाभिगमवाद (२) पञ्च दिशि-लोकाभिगमवाद (३) जीव-क्रियावरण-वाद (४) मुयग्ग पुद्गल जीववाद (५) अमुयग्ग पुद्गल-वियुक्त जीववाद (६) जीव-रूपि-वाद
(७) सर्व-जीववाद . एक दिशा को प्रत्यक्ष जान सके, वैसा प्रत्यक्ष ज्ञान किसी को मिले और वह ऐसा सिद्धान्त स्थापित करे कि वस लोकइतना ही है और "लोक सब दिशाओ में है, जो यह कहते हैं वह मिथ्या है-यह एक-दिशि-लोकाभिगमवाद है।
पांच दिशात्री को प्रत्यक्ष जानने वाला विश्व को उतना मान्य करता है 'और एक दिशा में ही लोक है, जो यह कहते हैं वह मिथ्या है-यह पञ्चदिशि लोकामिगम वाद है।