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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
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'नद' शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। फलित यह है-जहाँ शब्द का लिङ्ग भेद होता है, वहाँ अर्थ-भेद होता हो।
(२) एक वचन का जो वाच्य अर्थ है, वह बहुवचन का वाच्यार्थ नही होता। बहुवचन का वाच्च-अर्थ एक वचन का वाच्यार्थ नही बनता। "मनुष्य है" और "मनुष्य है। ये दोनो एक ही अर्थ के वाचक नही बनते । एकत्व की अवस्था बहुत्व की अवस्था से भिन्न है। इस प्रकार काल, कारक रूप का भेद अर्थ-भेट का प्रयोजक बनता है। ___ यह दृष्टि शब्दप्रयोग के पीछे छिपे हुए इतिहास को जानने में बडी सहायक है। संकेत-काल में शब्द, लिङ्ग आदि की रचना प्रयोजन के अनुरूप वनती है। वह रूढ जैसी बाद में होती है। सामान्यतः हम 'स्तुति' और 'स्तोत्र' का प्रयोग एकार्थक करते हैं किन्तु वस्तुतः ये एकार्थक नही है ।(एक श्लोकात्मक भक्ति काव्य 'स्तुति' और बहु श्लोकात्मक-भक्ति काव्य 'स्तोत्र' कहलाता है ३२॥ 'पुत्र' और 'पुत्री' के पीछे जो लिङ्ग-भेद की, 'तुम' और 'आपके पीछे जो वचन-भेद की भावना है, वह शब्द के लिङ्ग और वचन-भेद द्वारा व्यक्त होती है। (शब्द-नय शब्द के लिङ्ग, वचन आदि के द्वारा व्यक्त होने वाली अवस्था को ही तात्त्विक मानता है। एक ही व्यक्ति को स्थायी मानकर कभी 'तुम' और कभी 'आप' शब्द से सम्बोधित किया जा सकता है किन्तु शब्दनय उन दोनो को एक ही व्यक्ति स्वीकार नहीं करता। 'तुम' का वाच्य व्यक्ति लघु या प्रेमी है, जब कि 'बाप' का वाच्य -गुरु या सम्मान्य है। समभिरूढ़
एक वस्तु का दूसरी वस्तु में संक्रमण नही होता। प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप में निष्ठ होती है। स्थूल दृष्टि से हम अनेक वस्तुओं के मिश्रण या सहस्थिति को एक वस्तु मान लेते हैं किन्तु ऐसी स्थिति में भी प्रत्येक वस्तु अपने-अपने स्वरूप में होती है। __जैन दर्शन की भाषा में अनेक वर्गणाएं और विज्ञान की भाषा में अनेक गैसें (Gases ) आकाश-मडल में व्यास है किन्तु एक साथ व्याप्त रहने पर भी वे अपने-अपने स्वरूप में हैं। समर्मिरूढ़ का अभिप्राय यह है कि जो