________________
जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
[ १६१
यदि सब पदार्थों में सर्वथा अभेद ही होता - वास्तविक एकता ही होती तो व्यवहार नय की ( भेद को वास्तविक मानने की ) बात त्रुटिपूर्ण होती । इसी प्रकार सब पदार्थों में सर्वथा भेद ही होता, वास्तविक अनेकता ही होती तो ग्रह-दृष्टि की (अभेद को वास्तविक मानने की ) बात सत्य नही होती ।
चैतन्य गुण जैसे चेतन व्यक्तियो में सामञ्जस्य स्थापित करता है, वैसे ही यदि यही गुण अचेतन व्यक्तियो का चेतन व्यक्तियो के साथ सामञ्जस्य स्थापित करता तो चैतन्य धर्म की अपेक्षा चेतन और अचेतन को अत्यन्त विरोधी मानने की स्थिति नही आती । (चेतन और अचेतन में अन्य धर्मो द्वारा सामञ्जस्य होने पर भी चेतन धर्म द्वारा सामञ्जस्य नही होता। इसलिए भेद भी तात्त्विक है । सत्ता, द्रव्यत्व आदि धर्मों के द्वारा चेतन और अचेतन मे यदि किसी प्रकार का सामञ्जस्य नहीं होता, तो दोनो का अधिकरण एक जगत नहीं होता । वे स्वरूप से एक नही हैं, अधिकरण से एक है, इसलिए अमेद भी तात्त्विक है)
अभेद और भेद की तात्त्विकता के कारण भिन्न-भिन्न है। सत्ता या अस्तित्व अभेद का कारण है, यह कभी भेद नही डालता । हमारी अभेदपरकइसके सहारे बनती है ।
विशेष धर्म या नास्तित्व ( जैसे चेतन का चैतन्य ) भेद का कारण है । इसके सहारे भेद-परक दृष्टि चलती है ।
वस्तु का जो समान परिणाम है, वही सामान्य है ।
असमान परिणाम के बिना हो नही सकता |
असमानता के बिना एकता होगी, समानता नहीं | वह असमान परिणाम ही विशेष है 3 |
जैनम दृष्टि अमेद और मेद शक्तियों की एकाश्रयता के द्वारा पदार्थ को अभेदक और भेदक - धर्मो का समन्वय मानकर अभेद और भेद की तात्त्विकता का समर्थन करती है । संग्रह और व्यवहार - ये दोनो क्रमशः अभेद और भेद को मुख्य मानकर इनकी वास्तविकता का समर्थन करने वाली दृष्टियाँ हैं। व्यवहार नय
यह (१) उपचार - वहुल और ( २ ) लौकिक होता है ।
समान परिणाम