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जैन दर्शन में प्रमाण मोमांसा [१५७ प्रमाण की दृष्टि से द्रव्य और पर्याय में कथंचित् मेद और कथंचित् अभेद है। उससे भेदाभेद का युगपत् ग्रहण होता है।
नैगमनय के अनुमार द्रव्य और पर्याय का सम स्थिति मे युगपत् ग्रहण नहीं होता। अभेद का ग्रहण भेट को गौण बना डालता है और भेद का ग्रहण अमेद की। मुख्य प्ररूपणा एक की होगी, प्रमाता जिसे चाहेगा उसकी होगी।
आनन्द चेतन का धर्म है। चेतन में आनन्द है-इस विवक्षा मे आनन्द मुख्य बनता है, जो कि भेद है-चेतन की ही एक विशेष अवस्था है। "आनन्दी जीव की बात छोड़िए"-इम विवक्षा मे जीव मुख्य है, जो कि अभेद हैआनन्द जैसी अनन्त सूक्ष्म-स्थूल विशेष अवस्थाओ का अधिकरण है। Oनैगमनय भावों की अभिव्यञ्जना का व्यापक स्रोत है । आनन्द छा रहा है"-यह ऋजुसूत्र नय का अभिप्राय है। इसमें केवल धर्म या भेद की अभिव्यक्ति होती है । "आनन्द कहाँ "यह उससे व्यक्त नहीं होता'द्रव्य एक है"- यह संग्रह नय का अभिप्राय है किन्तु द्रव्य में क्या है ?-यह नहीं जाना जाता। "आनन्द चेतन में होता है" और उसका अधिकरण चेतन ही,है, यह दोनों के सम्बन्ध की अभिव्यक्ति है। यह नैगमनय का अभिप्राय है। इस प्रकार गुण-गुणी, अवयव अवयवी, क्रिया कारक, जाति-जातिमान्
आदि में जो मेदामेद-सम्बन्ध होता है, उसकी व्यञ्जना इसी दृष्टि से होती है। पराक्रम और पराक्रमी को सर्वथा एक माना जाए तो वे वस्तु नही हो सकते ।। यदि उन्हे सर्वथा दो माना जाए तो उनमें कोई सम्बन्ध नहीं रहता। वे दो है-यह भी प्रतीति-सिद्ध है, उनमें सम्बन्ध है-यह भी प्रतीति-सिद्ध है किन्तु हम दोनों को शब्दाश्रयी शान द्वारा एक साथ जान सके या कह सकें। यह प्रतीति-सिद्ध नहीं, इसलिए नैगमदृष्टि है, जो अमुक धर्म के साथ अमुक धर्म का सम्बन्ध बताकर यथा समय एक दूसरे की मुख्य स्थिति को ग्रहण कर सकती है। "पराक्रमी हनुमान्" इस वर्णन शैली में हनुमान की मुख्यता होगी। हनुमान् के पराक्रम का वर्णन करते समय उसकी (पराक्रम की) मुख्यता अपने आप हो जाएगी। वर्णन की यह सहज शैली ही इस दृष्टि का आधार है।