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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
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संयम प्रेरित प्रवृत्ति वैभाविक इसलिए है कि वह शरीर, वाणी और मन, जो आत्मा के स्वभाव नही, विभाव हैं, के सहारे होती है। साधक-दशा,समास होते ही यह स्थिति समाप्त हो जाती है, या यूं कहिए शरीर, वाणी और मन के सहारे होने वाली संयम प्रेरित प्रवृत्ति मिटते ही साध्य मिल जाता है। यह अपूर्ण से पूर्ण की ओर गति है । पूर्णता के क्षेत्र में इनका कार्य ममास हो जाना है। असंयम का अर्थ है-राग, द्वेष और मोह की परिणति । जहाँ राग, द्वैप और मोह की परिणति नही, वहाँ संयम होता है। निवृत्ति का अर्थ सिर्फ 'निषेध' या नही करना ही नहीं है। 'नही करना-यह प्रवृत्ति की निवृत्ति है किन्तु प्रवृत्ति करने की जो आन्तरिक वृत्ति (अविरति) है, उसकी निवृत्ति नहीं है। क्रिया के दो पक्ष होते हैं-अविरति और प्रवृति १५१ अविरति उसका अन्तरंग पक्ष है, जिसे शास्त्रीय परिभाषा में अत्याग या असंयम कहा जाता है। प्रवृत्ति उसका बाहरी या स्थूल रूप है। यह योगात्मक क्रिया यानि शरीर, भाषा और मन के द्वारा होने वाली प्रवृत्ति है। जो प्रवृत्ति अविरति-प्रेरित होती है (जहाँ अविरति और प्रवृत्ति दोनो सयुक्त होती हैं ) वहाँ निवृत्ति का प्रश्न ही नही उठता और जहाँ अविरति होती है, प्रवृत्ति नहीं होती वहाँ प्रवृत्ति की अपेक्षा (मानसिक, वाचिक, कायिक कर्म की अपेक्षा) निवृत्ति होती है। और जहाँ अविरति नही होती केवल प्रवृत्ति होती है, वहाँ अविरति की अपेक्षा निवृत्ति और मन, मापा और शरीर की अपेक्षा प्रवृत्ति होती है । अपूर्ण दशा में पूर्ण निवृत्ति होती नही । अविरति-निवृत्तिपूर्वक जो प्रवृत्ति होती है, वहाँ निवृत्ति संयम है । अविरति के भाव में स्थूल प्रवृत्ति की निवृत्ति होती है, वहाँ प्रवृत्ति नहीं होती, उससे असंयम को पोषण नही मिलता किन्तु . मूलतः असयम का अभाव नही, इसलिए वह (निवृत्ति) संयम नही बनती । श्रद्धा और तर्क
अति श्रद्धावाद और अति तर्कवाद-ये दोनो मिथ्या हैं । प्रत्येक तत्त्व की यथार्थता अपने-अपने क्षेत्र में होती है। इनकी भी अपनी-अपनी मर्यादाएं हैं।
भाव दो प्रकार के हैं :(१) हेतु गम्य। (२) अहेतु गम्य