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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
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वेदान्त और बौद्ध सम्मत व्यवहार- दृष्टि से जैन सम्मत व्यवहार-दृष्टि का नाम साम्य है किन्तु स्वरूप साम्य नहीं । वेदान्त व्यवहार, माया या श्रविद्या को और बौद्ध संवृत्ति को अवास्तविक मानता है किन्तु जैन दृष्टि के अनुसार वह अवास्तविक नहीं है । नैगम, संग्रह और व्यवहार - ये तीन निश्चय दृष्टियाँ
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हैं; ऋतु सूत्र, शब्द, सममिरूढ़ और एवम्भूतये चार व्यवहार दृष्टियाँ २७| व्यवहार और निश्चय — ये दो दृष्टियां प्रकारान्तर से भी मिलती है । Q व्यवहार---स्थूल पर्याय का स्वीकार, लोक सम्मत तथ्य का स्वीकार । Q निश्चय - वस्तुस्थिति का स्वीकार ।
पहली में इन्द्रियगम्य तथ्य का स्वीकार है, दूसरी में प्रज्ञागम्य सत्य का । व्यवहार तर्कवाद है और निश्चय अन्तरात्मा से उद्भूत होने वाला अनुभव
की दृष्टि में सत्य
चार्वाक की दृष्टि में सत्य इन्द्रियगम्य है और वेदान्त श्रतीन्द्रिय है २९ | जैन-दृष्टि के अनुसार दोनो सत्य हैं। निश्चय वस्तु के सूक्ष्म और पूर्ण स्वरूप का अगीकार है और व्यवहार उसके स्थूल और अपूर्ण स्वरूप का अंगीकार । मात्रा भेद होने पर भी दोनो मे सत्य का ही अगीकार है, इसलिए एक को अवास्तविक और दूसरे को वास्तविक नहीं माना जा
सकता ।
सुण्डकोपनिषद् ( १|४|५ ) मे विद्या के दो भेद है-- अपरा और परा पहली का विषय वेद ज्ञान और दूसरी का शाश्वत ब्रह्म ज्ञान है । इन्हे तार्किक और आनुभविक ज्ञान के दो रूप में व्यवहार और निश्चय न कहा जा सकता है । व्यवहार-ष्टि से जीव सर्वण है और निश्चय दृष्टि से वह वर्ण ३०| जीव अमूर्त है, इसलिए वह वस्तुतः वर्णयुक्त नहीं होता - यह वास्तविक मत्य है। शरीरधारी जीव कथंचित् मूर्त होता है- शरीर मूर्त होता है। जीव उससे कथचित् अभिन्न है, इसलिए वह भी सवर्ण है, यह औपचारिक सत्य है ।
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एक भौरा, जो काला दीख रहा है, वह सफेद भी है, हरा भी है औरऔर रंग भी उसमे हैं - यह पूर्ण तथ्योक्ति है।
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"भौरा काला है" --- यह सत्य का एक देशीय स्वीकार है ।