________________
जैन दर्शन में प्रमाण मोमासा [१५३ रही समझ लिया जाए, वह सही दृष्टि नहीं। व्यवहार की बात को निश्चय की दृष्टि से देखा जाए, वहाँ वह मिथ्या बन जाती है। अपनी मर्यादा में यह सत्य है। सात नय में जो व्यवहार है, उसका अर्थ उपचार या स्थूलदृष्टि नहीं है। उसका अर्थ है-विमाग या भेद । इसलिए इन दोनो में शब्द-साम्य होने पर भी अर्थ-साम्य नहीं है।
(३) ज्ञान को मुख्य मानने वाला अभिप्राय ज्ञान नय कहलाता है।
(४) क्रिया को मुख्य मानने वाला अभिप्राय क्रियानय कहलता है आदि-आदि।
इस प्रकार अनेक, असंख्य या अनन्त अपेक्षाएँ बनती हैं। वस्तु के जितने सहमावी और क्रममावी, सापेक्ष और परापेक्ष धर्म है, उतनी ही अपेक्षाएं हैं। अपेक्षाएं स्पष्ट बोध के लिए होती हैं। जो स्पष्ट बोध होगा, वह सापेक्ष ही होगा) सत्य का व्याख्याद्वार
सत्य का साक्षात् होने के पूर्व सत्य की व्याख्या होनी चाहिए। एक सत्य के अनेक रूप होते है ( अनेक रूपो की एकता और एक की अनेक रूपता ही सत्य है। उसकी व्याख्या का जो साधन है, वही नय है। सत्य एक और अनेक-भाव का अविभक्त रूप है, इसलिए उसकी व्याख्या करने वाले नय भी परस्पर-सापेक्ष है। । सत्य अपने आपमे पूर्ण होता है । न तो अनेकता-निरपेक्ष एकता सत्य है
और न एकता-निरपेक्ष अनेकता। एकता और अनेकता का समन्वित रूप ही - पूर्ण सत्य है। सत्य की व्याख्या वस्तु, क्षेत्र, काल और अवस्था की अपेक्षा से होती है। एक के लिए जो गुरु है, वही दूसरे के लिए लघु, एक के लिए जो दूर है, वही दूसरे के लिए निकट, एक के लिए जो ऊर्ध्व है, वही दूसरे के लिए निम्न, एक के लिए जो सरल है, वही दूसरे के लिए वक्र । अपेक्षा के विना इनकी व्याख्या नहीं हो सकती। गुरु और लघु क्या है ? दुर और निकट क्या है ? ऊर्ध्व और निम्न क्या है ? सरल और वक्र क्या है ? -वस्तु, क्षेत्र
आदि की निरपेक्ष स्थिति मे इनका उत्तर नहीं दिया जा सकता। यह स्थिति पदार्थ का अपने से बाह्य जगत् के साथ मम्वन्ध होने पर वनती है किन्तु उसकी