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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
इन प्रकारान्तर से निरूपित व्यवहार और निश्चय दृष्टियो का आधार नयवाद की आधार-भित्ति से भिन्न है। उसका आधार अभेद-भेदात्मक वस्तु ही है। इसके अनुसार नय एक ही है-"द्रव्य पर्यायाथिक । वस्तु-स्वरूप भेदाभेदात्मक है, तब नय द्वन्य-पर्यायात्मक ही होगा।
नय सापेक्ष होता है, इसलिए इसके दो रूप बन जाते है। (१) जहाँ पयार्य गौण और द्रव्य मुख्य होता है, वह द्रव्यार्थिक। (२) जहाँ द्रव्य गौण तथा पयार्य मुख्य होता है, वह पर्यायार्थिका/
वस्तु के सामान्य और विशेष रूप की अपेक्षा से नय के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक-ये दो भेद किए, वैसे ही इसके दो भेद और वनते हैं :
(१) शब्दनय।। (२) अर्थनय।
ज्ञान दो प्रकार का होता है-शब्दाश्रयी और अर्थाश्रयी। उपयोगात्मक या विचारात्मक नय , अर्थाश्रित , ओर प्रतिपादनात्मक नय आगम या शाब्द ज्ञान का कारण होता है, इसलिए श्रोता की अपेक्षा वह शब्दाश्रित होना चाहिए किन्तु यहाँ यह अपेक्षा नहीं है। यहाँ वाच्य में वाचक्र की प्रवृत्ति को गौण-मुख्य मानकर विचार किया गया है। अर्थनय मे अर्थ की मुख्यता है और उसके वाचक की गौणता। शब्दनय में शब्द-प्रयोग के अनुसार अर्थ का बोध होता है, इसलिए यहाँ शब्द मुख्य शापक बनता है, अर्थ गौण रह जाता है।
(वास्तविक दृष्टि को मुख्य मानने वाला अभिप्राय निश्चय नय कहलाता है।
(अलौकिक दृष्टि को मुख्य मानने वाला अभिप्राय व्यवहार नय कहलाता है।
सात नय निश्चय नय के भेद है। व्यवहार नय को उपनय भी कहा जाता है। व्यवहार उपचरित है। अच्छा मेह बरसता है, तब कहा जाता है "अनाज वरस रहा है। यहाँ कारण में कार्य का उपचार है। मेह तो अनाज का कारण है, उसे अपेक्षावश धान्योत्पादक दृष्टि की अनुकूलता बताने के लिए अनाज समझा या कहा जाए, यह उचित है किन्तु उसे अनाज