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जैन दर्शन में प्रमाण मामासा
और भेद भी। अभेद से भेद और भेद से अभेद सर्वथा भिन्न नहीं है, इसलिए यूं कहना होगा कि स्वतन्त्र अभेद भी सत्य नहीं है, स्वतन्त्र भेद भी सत्य नहीं है किन्तु सापेक्ष अभेद और भेद का संवलित रूप सत्य है। आधार मी सत्य है,
आधेय भी सत्य है, द्रव्य भी सत्य है, पर्याय भी सत्य है, जगत् भी सत्य है, ब्रह्म भी सत्य है, विभाव भी सत्य है, स्वभाव भी सत्य है। जो त्रिकाल अवाधित है, वह सब सत्य है। . ___ सत्य के दो रूप हैं, इसलिए परखने की दो दृष्टियां हैं-(१) द्रव्य-दृष्टि (२) पर्याय-दृष्टि । सत्य के दोनो स्प सापेक्ष हैं, इसलिए ये भी सापेक्ष हैं। द्रव्य दृष्टि का अर्थ होगा द्रव्य प्रधान दृष्टि और पर्याय दृष्टि का अर्थ पर्याय प्रधान दृष्टि । द्रव्य-दृष्टि में पर्याय दृष्टि का गौण रूप और पर्याय-दृष्टि में द्रव्य-दृष्टि का गौण रूप अन्तर्हित होगा। द्रव्य-दृष्टि अमेद का स्वीकार है
और पर्याय दृष्टि मेद का। दोनो की सापेक्षता भेदाभेदात्मक सत्य का स्वीकार है।
अभेद और भेद का विचार आध्यात्मिक और वस्तुविज्ञान-इन दो दृष्टियों से किया जाता है । जैसे:
सांख्य-प्रकृति पुरुष का विवेक-भेद ज्ञान करना सम्यग्-दर्शन, इनका एकत्व मानना मिथ्या दर्शन। ( वेदान्त-प्रपंच और ब्रह्म को एक मानना सम्यग् दर्शन, एक तत्त्व को नाना समझना मिथ्या दर्शन।
जैन-चेतन और अचेतन को मिन्न मानना सम्यग् दर्शन, इनको अभिन्न मानना मिथ्या दर्शन।
मेद-अमेद का यह विचार आध्यात्मिक दृष्टिपरक है। वस्तु विज्ञान की दृष्टि से वस्तु उभयात्मक (द्रव्य-पर्यायात्मक ) है। इसके आधार पर दो दृष्टियां बनती हैं:
(१) निश्चय ।। (२) व्यवहार ।
निश्चय दृष्टि द्रव्याश्रयी या अमेदाश्रयी है। व्यवहार दृष्टि पर्यायाश्रयी . या भेदाश्रयी है।