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१४६] जैन दर्शन में प्रमाण मौमांसा निश्चय-दृष्टि में वह पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श युक्त औदारिक वर्गणा के पुद्गली का समुदाय है।
(एक ही वस्तु के ये जितने विश्लेषण हैं, उतने ही उनके हेतु है-अपेक्षाएं हैं। इन्हे अपनी अपनी अपेक्षा से देखें तो सब सत्य है और यदि निरपेक्ष विश्लेषण को सत्य माने तो वह फिर दुर्नय बन जाता है। सापेक्ष नय में विरोध नही आता और ज्यों ही ये निरपेक्ष बन जाते हैं, त्यो ही ये असत्एकान्त के पोषक बन मिथ्या बन जाते हैं। ) __द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अवस्था, वातावरण आदि के सहारे वस्तुस्थिति को सही पकड़ा जा सकता है, उसका मौलिक दृष्टि-विन्दु या हार्द समझा जा सकता है। द्रव्य आदि से निरपेक्ष वस्तु को समझने का प्रयत्न हो तो कोरा कलेवर हाथ आ जाता है किन्तु उसकी सजीवता नही आती। मार्क्स ने इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर समाज के आर्थिक ढांचे की जो छानबीन की और निष्कर्ष निकाले, उन्हे आर्थिक पहलू की अपेक्षा मिथ्या कैसे माना जाय ? किन्तु आर्थिक व्यवस्था ही समाज के लिए सब कुछ है, यह आत्मशान्ति-निरपेक्षदृष्टि है, इसलिए सत्य नहीं है।
शरीर के बाहरी आकार-प्रकार में क्रमिक परिवर्तन होता है, इस दृष्टि से डारविन के क्रम-विकासवाद को मिथ्या नहीं माना जा सकता किन्तु उनने
आन्तरिक योग्यता की अपेक्षा रखे बिना केवल बाहरी स्थितियो को ही परिवर्तन का मुख्य हेतु माना, यह सच नहीं है।
ईसी प्रकार यदृच्छावादी यहच्छा को, आकस्मिकवादी आकस्मिकता को, कालवादी काल को, स्वभाववादी स्वभाव को, नियतिवादी नियति को, दैववादी दैव को और पुरुषार्थवादी पुरुषार्थ कोही कार्य-सिद्धि का कारण बतलाते है, यह मिथ्यावाद है। सापेक्षदृष्टि से सब कार्य सिद्धि के प्रयोजक हैं और सब सच है । काल वस्तु के परिवर्तन का हेतु है, स्वभाव वस्तु का स्वरूप या वस्तुत्व है, नियति वस्तु का ध्रुव सत्य नियम है, दैव वस्तु के पुरुषार्थ का परिणाम है, पुरुषार्थ वस्तु की क्रियाशीलता है।
पुरुषार्थ तब हो, सकता है, जव कि वस्तु में परिवर्तन का स्वभाव हो । स्वभाव होने पर भी तब तक परिवर्तन नहीं होता, जब तक उसका कोई कारण