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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [१३९ का विशद विवेचन और अनुपान के द्वारा प्रकृति-परिवर्तन का जो महान् सिद्धान्त मिलता है, वह भी काल और वस्तुयोग की अपेक्षा का आभारी है।) राजनीतिकवाद और अपेक्षाष्टि
राजनीति के क्षेत्र में अनेक वाद चलते हैं। एकतन्त्र पद्धति दृढ़ शासन की अपेक्षा निर्दीप है, वह शासक की स्वेच्छाचारिता की अपेक्षा निर्दोष नही मानी जा सकती।
जनतन्त्र में स्वेच्छाचारिता का प्रतिकार है, परन्तु वहाँ दृढ शासन का अमाव होता है, इस अपेक्षा से वह त्रुटिपूर्ण माना जाता है। ___साम्यवाद जीवन यापन की पद्धति को सुगम बनाता है, यह उसका उज्ज्वल पक्ष है तो दूसरी ओर व्यक्ति यन्त्र बनकर चलता है, वाणी और विचार स्वातन्त्र्य की अपेक्षा से वह रुचिगम्य नही बनता।
राष्ट्र-हित की अपेक्षा से जहॉराष्ट्रीयता अच्छी मानी जाती है किन्तु दूसरे राष्ट्रों के प्रति घृणा या न्यूनता उत्पन्न करने की अपेक्षा से वह अच्छी नहीं होती। यही बात जाति, समाज और व्यक्तित्व के लिए है।
पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, सदाचार-असदाचार, अहिंसा-हिंसा, न्याय-अन्याय यह सब सापेक्ष होते हैं। एक की अपेक्षा जो पुण्य या धर्म होता है, वही दूसरे की अपेक्षा पाप या अधर्म बन जाता है। पूंजीवादी-अर्थ व्यवस्था की अपेक्षा भिखारी को दान देना पुण्य या धर्म माना जाता है किन्तु साम्यवादी-अर्थव्यवस्था की दृष्टि से भिखारी को देना पुण्य या धर्म नहीं माना जाता। लोकव्यवस्था की दृष्टि से विवाह सदाचार माना जाता है किन्तु आत्म-साधना की अपेक्षा वह सदाचार नहीं है। उसकी दृष्टि में सदाचार है-पूर्ण ब्रह्मचर्य। दूसरे शब्दों में यूं कह सकते हैं, समाज व्यवस्था की दृष्टि से सहवास के उपयोगी सभी व्यावहारिक नियम पुण्य, धर्म या सदाचार माने जाते हैं किन्तु मोक्षसाधना की दृष्टि से ऐसा नही है। उसकी अपेक्षा में धर्म, सदाचार या पुण्य कार्य वही है, जो अहिंमात्सक है।
समाज की दृष्टि से व्यापार, खेती, शिल्पकारी आदि अल्प हिंसा या अनिवार्य हिंसा को अहिंसा माना जाता है विन्द आत्म-धर्म की ट से यह अहिंसा नहीं है १४ । दण्ड-विधान की अपेक्षा से अपराधी को अपराध के अनु