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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा १३७ "संसार और मोक्ष का मार्ग पृथक-पृथक् है ।" मोक्ष-दर्शन की अपेक्षा व्यक्ति का अकेलापन सत्य है और समाज-दर्शन की अपेक्षा उसका सामुदायिक रूप । सामुदायिकता और आत्म-साधना एक व्यक्ति में होती है किन्तु उनके उपादान और निमित्त एक नहीं होते। वे मिन्नहेतुक होती हैं, इसलिए उनकी अपेक्षाएं भी भिन्न होती है। अपेक्षाएं भिन्न होती हैं, इसलिए उनमें अविरोध. होता है। आत्मा के अकेलेपन का दृष्टिकोण समाज विरोधी है और आत्मा के सामूहिक कर्म या फल भोग का दृष्टिकोण धर्म-विरोधी। किन्तु वास्तव में दोनो में कोई विरोधी नहीं। अपनी स्वरूप-मर्यादा में कोई विरोध होता नहीं। दूसरे के संयोग से जो विरोध की प्रतीति बनती है, वह अपेक्षा भेद से मिट जाती है। किसी भी वस्तु मे विरोध तब लगने लगता है, जब हम अपेक्षा को भुलाकर दो वस्तुत्री को एक ही दृष्टि से समझने की चेष्टा करते हैं। समय की अनुभूति का तारतम्य और सामञ्जस्य
'प्रिय वस्तु के सम्पर्क मे वर्ष दिन जैसा और अप्रिय वस्तु के साहचर्य में दिन वर्ष जैसा लगता है, यह अनुभूति-सापेक्ष है। सुख-दुःख का समान समय काल-स्वरूप की अपेक्षा समान वीतता है किन्तु अनुभूति की अपेक्षा उसमे तारतम्य होता है। अनुभूति के तारतम्य का हेतु है-सुख और दुःख का संयोग। इस अपेक्षा से समान काल का तारतम्य सत्य है। कालगति की अपेक्षा तुल्यकाल तुल्यअवधि में ही पूरा होता है-यह सत्य है।
उपनिपद में ब्रह्म को अणु से अणु और महत् से महत् कहा गया है। वह सत् मी है और असत् भी। उससे न कोई पर है और न कोई अपर, न कोई छोटा है और न कोई बड़ा । . अपेक्षा के विना महाकवि कालिदास की निम्न प्रकारोक्ति सत्य नहीं वनती-"प्रिया के पास रहते हुए दिन अणु से अणु लगता है और उसके वियोग में बड़े से भी बड़ा १२।”
प्रसिद्ध गणितज्ञ आइन्स्टीन की पत्नी ने उनसे पूछा-अपेक्षावाद क्या है? आइन्स्टीन ने उत्तर मे कहा-"सुन्दर लड़की के साथ बातचीत करने वाले व्यक्ति को एक घण्टा एक-मिनट के वरावर लगता है और वही गर्म स्टॉव के