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जैन दर्शन में प्रमाणं मीमासी
धर्म समन्वय ___ धर्म-दर्शन के क्षेत्र मे समन्वय की और संकेत करते हुए एक आचार्य ने लिखा है-समाज व्यवहार या दैनिक व्यवहार की अपेक्षा वैदिक धर्म, अहिंसा या मोक्षार्थ आचरण की अपेक्षा जैन धर्म, श्रुति-माधुर्य या करुणा की अपेक्षा बौद्ध धर्म और उपासना-पद्धति या योग की अपेक्षा शैव धर्म श्रेष्ठ है ..." यह सही बात है। कोई भी तत्व सव अथा मे परिपूर्ण नहीं होता। पदार्थ की पूर्णता अपनी मर्यादा में ही होती है और उस मर्यादा की अपेक्षा से ही वस्तु को पूर्ण माना जाता है। निरपेक्ष पूर्णता हमारी कल्पना की वस्तु है, वस्तुस्थिति नहीं। आत्मा चरम विकास पा लेने के बाद भी अपने रूप मे पूर्ण होती है। किन्तु अचेतन पदार्थ की अपेक्षा उसकी पूर्णता नहीं होती । अचेतन रूप मे वह पूर्ण तब बने, जबकि वह सर्व भाव में अचेतन बन जाए-ऐसा होता नही, इसलिए अचेतन की सत्ता की अधिकारी कैसे बने । अचेतन अपनी परिधि में पूर्ण है। अपनी परिधि में अन्तिम विकास हो जाए, उसी का नाम पूर्णता है। जैन धर्म जो मोक्ष-पुरुषार्थ है, मोक्ष की दिशा वताए, इसी में उसकी पूर्णता है और इसी अपेक्षा से वह उपादेय है। संसार चलाने की अपेक्षा से जैन धर्म की स्थिति ग्राह्य नहीं बनती तात्पर्य यह है कि संसार में जितना मोक्ष है, उसकी जैन धर्म को अपेक्षा है किन्तु जो कोरा संसार है, उसकी अपेक्षा से जैन धर्म का अस्तित्व नहीं बनता। समाज की अपेक्षा सिर्फ मोक्ष ही नहीं, इसलिए उसे अनेक धर्मों की परिकल्पना आवश्यक हुई। धर्म और समाज की मर्यादा और समन्वय
आत्मा अकेली है। अकेली आती है और अकेली जाती है। अपने किये का अकेली ही फल भोगती है। यह मोक्ष धर्म की अपेक्षा है। समाज की अपेक्षा इससे भिन्न है । उसका आधार है सहयोग । उसकी अपेक्षा है, सब कुछ सहयोग से बने । सामान्यतः ऐसा प्रतीत होता है कि एक व्यक्ति दोनो विचार लिए चल नहीं सकता किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । जो व्यक्ति मोक्ष-धर्म की अपेक्षा
आत्मा का अकेलापन और समाज की अपेक्षा उसकासामुदायिक रूप समझकर चले तो कोई विरोध नहीं आता। इसी अपेक्षा दृष्टि से प्राचार्य भिन्तु ने बताया