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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
(३) काल-भेद । (४) अवस्था भेद।
तात्पर्य यह है-"सत्ता वही जहाँ अर्थ-क्रिया, अर्थ क्रिया वही जहाँ क्रमअक्रम, क्रम-अक्रम वही जहाँ अनेकान्त होता है। एकान्तवादी व्यापक अनेकान्त को नहीं मानते, तव व्याप्य क्रम-अक्रम नही, क्रम-अक्रम के विना क्रिया व कारक नही, क्रिया व कारक के विना बन्ध आदि चारो (बन्ध, वन्ध कारण, मोक्ष, मोक्ष कारण ) नही होते । इसलिए समस्यानो से मुक्ति पाने के लिए अनेकान्तदृष्टि ही शरण है। काठ के टुकड़े के मूल्य पर जो हमने विचार किया, वह अवस्था भेद से उत्पन्न अपेक्षा है। यदि हम इस अवस्था भेद से उत्पन्न होने वाली अपेक्षा की उपेक्षा कर दें तो भिन्न मूल्यों का समन्वय नही किया जा सकता।
आम की ऋतु में रुपये के दो सेर आम मिलते हैं। मृतु बीतने पर सेर आम का मूल्य दो रुपये हो जाते हैं। कोई भी व्यवहारी एक ही वस्तु के इन विभिन्न मूल्यों के लिए झगड़ा नहीं करता। उसकी सहज बुद्धि में कालभेद की अपेक्षा समाई हुई रहती है। ___ काश्मीर में मेवे का जो भाव होता है, वह राजस्थान में नहीं होता। काश्मीर का व्यक्ति राजस्थान में आकर यदि काश्मीर-सुलभ मूल्य में मेवा लेने का आग्रह करे तो वह बुद्धिमानी नहीं होती। वस्तु एक है, यह अन्वय की दृष्टि है किन्तु वस्तु की क्षेत्राश्रित पर्याय एक नहीं है। जिसे आम की
आवश्यकता है वह सीधा आम के पास ही पहुंचता है। उसकी अपेक्षा यही वो है कि आम के अतिरिक सब वस्तुओं के अभाव धर्म वाला और ग्रामपरमाणु सद्भावी आम उसे मिले। इस सापेक्ष-दृष्टि के विना व्यावहारिक समाधान भी नहीं मिलता। भगवान महावीर की अपेक्षादष्टियां
"से निच्चनिच्चेहिं समिक्ख पण्णेर-अव्युच्छेद की दृष्टि से वस्तु नित्य है, व्युच्छेद की दृष्टि से अनित्य । भगवान् ने अविच्छेद और यिन्छेद दोनो का समन्वय किया। फलस्वरूप ये निर्णय निकलते हैं कि
(१) वस्तु न नित्य, न अनित्य किन्तु नित्य-अनित्य का समन्वय ।