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"नत्थि नएहि विहूणं, सुतं अत्यीय जिणमए किंचि । आसज्जन सोयारं, नए नय विसारी बूला ॥"
श्राव नि० गाथा ७६२ सापेक्ष-दृष्टि
प्रत्येक वस्तु में अनेक विरोधी धर्म प्रतीत होते हैं। अपेक्षा के विना उनका विवेचन नही किया जा सकता। अखण्ड द्रव्य को जानने समय उसकी समग्रता जान ली जाती है किन्तु इससे व्यवहार नहीं चलता। उपयोग अखण्ड जान का ही हो सकता है। अमुक समय में अमुक कार्य के लिए अमुक वस्तुधर्म का ही व्यवहार या उपयोग होता है, अखण्ड वस्तु का नहीं । हमारी सहज अपेक्षाएं भी ऐसी ही होती हैं। विटामिन डी (VitaminD) की कमी वाला व्यक्ति सूर्य का आताप लेता है, वह वालसूर्य की किरणों का लेगा। शरीर-विजय की दृष्टि से सूर्य का ताप सहने वाला तरुणसूर्य की धूप में आताप लेगा। मिन्न-भिन्न अपेक्षा के पीछे पदार्थ का मिन्न-भिन्न उपयोग होता है। प्रत्येक उपयोग के पीछे हमारी निश्चय अपेक्षा जुड़ी हुई होती है। यदि अपेक्षा न हो तो प्रत्येक वचन और व्यवहार आपस में विरोधी बन जाता है।)
एक काठ के टुकड़े का मूल्य एक रुपया होता है, उसीका उत्कीर्णन (खुदाई ) के वाद दस रुपया मूल्य हो जाता है, यह क्यो ? काठ नही वदला फिर भी उसकी स्थिति बदल गई। उसके साथ साथ मूल्य की अपेक्षा वदल गई। काठ की अपेक्षा से उसका अव भी वही एक रुपया मूल्य है किन्तु खुदाई की अपेक्षा मूल्य वह नहीं, नौ रुपये और बढ़ गए। एक और दस का मूल्य विरोधी है पर अपेक्षा मेद समझने पर विरोध नहीं रहता।
अपेक्षा हमारा बुद्धिगत धर्म है। वह भेद से पैदा होता है। भेद मुख्यवृत्त्या चार होते हैं
(१) वस्तु-मेद। (२) क्षेत्र-भेद या शाश्चय भेद।