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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
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आवश्यक है। भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-"रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है, स्यात् आत्मा नही, स्यात् अवक्तव्य है।" स्व की अपेक्षा आत्मा अस्तित्व है, पर की अपेक्षा आत्मा-अस्तित्व नहीं है। युगपत् दोनो की अपेक्षा अवक्तव्य है। ये तीन विकल्प हैं, इनके संयोग से चार विकल्प और वनते हैं
(४) स्यात्-अस्ति, स्यात् नास्ति-रत्नप्रभा पृथ्वी ख की अपेक्षा है, पर की अपेक्षा नहीं है-यह दो अंशों की क्रमिक विवक्षा है।
(५) स्यात्-अस्ति, स्यात्-अवक्तव्य-ख की अपेक्षा है, युगपत् ख-पर की अपेक्षा अवक्तव्य है।
(६) स्यात् नास्ति, स्यात्-अवक्तव्य-पर की अपेक्षा नहीं है, युगपत् खपर की अपेक्षा अवक्तव्य है।
(७) स्यात्-अस्ति, स्यात्-नास्ति, स्यात्-अवक्तव्य-एक अंश स्व की अपेक्षा है, एक अंश पर की अपेक्षा नहीं है, युगपत् दोनों की अपेक्षा अवक्तव्य है। प्रमाण-सप्तमगी
सत्त्व की प्रधानता से वस्तु का प्रतिपादन (१) इसलिए. अस्ति। असत्त्व , , , , (२) इसलिए.. नास्ति । उभय धर्म की ,, से क्रमशः वस्तु का, (३), "अस्ति-नास्ति ।
" " "" युगपत् , , नहीं हो सकता (४) इसलिए अवक्तव्य। । उभय धर्म की प्रधानता से युगपत् वस्तु का प्रतिपादन नहीं हो सकता
'सन की प्रधानता से वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है (५) इसलिएअवक्तव्य-अस्ति। । उमय धर्म की प्रधानता से युगपत् वस्तु का प्रतिपादन नही हो सकताअसत्त्व की प्रधानता से वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है (६) इसलिएअवतन्य नाति। Nउमय धर्म की प्रधानता के साथ उभय धर्म की प्रधानता से क्रमशः वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है (७) इसलिए-अवतन्य-अस्ति-नास्ति ।