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जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा
के ग्रन्थ पढ़ते थे । जैन ग्रन्थो पर उन द्वारा लिखी गई टीकाएं इसका स्पष्ट प्रमाण है
स्यादवाद का निराकरण करते समय पूर्वपक्ष यथार्थ नहीं रखा गया । स्यादवाद में विरोध तब आता, जब कि एक ही दृष्टि से वह दो धर्मों को स्वीकार करता । पर बात ऐसी नही है। जैन श्रागम पर दृष्टि डालिए । भगवान् महावीर से पूछा गया कि - भगवन्! "जीव मर कर दूसरे जन्म मे जाता है, तब शरीर सहित जाता है या शरीर रहित ?" भगवान् कहते हैं— " स्यात् शरीर सहित और स्यात् शरीर रहित ।" उत्तर में विरोध लगता है 2 पर अपेक्षा दृष्टि के सामने आते ही वह मिट जाता है ३४ ।
शरीर दो प्रकार के होते हूँ-सूक्ष्म और स्थूल । शरीर मोक्ष दशा से पहिले नही छूटते, इस अपेक्षा से परभव- गामी जीव शरीर सहित जाता है । स्थूल शरीर एक-जन्म-सम्बद्ध होते हैं, इस दृष्टि से वह अ-शरीर जाता है। एक ही प्राणी की स शरीर और अशरीर गति विरोधी बनती है किन्तु अपेक्षा समझने पर वह वैसी नहीं रहती । )
विरोध तीन प्रकार के हैं - ( १ ) वध्य घातक - भाव ( २ ) सहानवस्थान (३) प्रतिवन्ध्य प्रतिबन्धक भाव ।
पहला विरोध बलवान् और दुर्बल के बीच होता है । वस्तु के अस्तित्व और नास्तित्व धर्म तुल्यहेतुक और तुल्यबली हैं, इसलिए वे एक दूसरे को बाध नही सकते 1
दूसरा विरोध वस्तु की क्रमिक पर्यायो मे होता है । बाल्य और यौवन क्रमिक है, इसलिए वे एक साथ नही रह सकते । किन्तु अस्तित्व - और नास्तित्व क्रमिक नहीं हैं, इसलिए इनमें यह विरोध भी नही आता ।
आम डठल से बन्धा रहता है, तब तक गुरु होने पर भी नीचे नही गिरता | इनमे 'प्रतिवन्ध्य-प्रतिबन्धक भाव' होता है । अस्तित्व - नास्तित्व के प्रयोजन का प्रतिबन्धक नहीं है। अस्ति-काल में ही पर की अपेक्षा नास्तिबुद्धि और नास्तिकाल में ही स्व की इनमें प्रतिवन्ध्य प्रतिबन्धक भाव भी नहीं रहना - 1 -
अपेक्षा अस्ति- बुद्धि होती है, इसलिए नही है। अपेक्षा भेद से- इनमें विरोध
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