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जैन दर्शन में प्रमाण मौमासा का साधन मन होता है। उसका एक भेद है--'श्रागम'। वह वचनमूलक होता है, इसलिए परोक्ष है। स्मृति प्रामाण्य .
जैन तर्क-पद्धति के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्राच्य भारतीय तर्क-पद्धति में स्मृति का प्रामाण्य स्वीकृत नहीं है। इसका कारण यह बतलाया जाता है कि स्मृति अनुभव के द्वारा गृहीत विषय को ग्रहण करती है, इसलिए गृहीतग्राही होने के कारण वह अप्रमाण है-स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है। जैन दर्शन की युक्ति यह है कि अनुमव वर्तमान अर्थ को ग्रहण करता है और स्मृति अतीत अर्थ को, इसलिए यह कथंचित् अगृहीतग्राही है। काल की दृष्टि से इसका विषय स्वतन्त्र है। दूसरी वात-गृहीतग्राही होने मात्र से स्मृति का प्रामाण्य धुल नहीं जाता। ____ प्रामाण्य का प्रयोजक अविसंवाद होता है, इसलिए अविसवादक स्मृति का प्रामाण्य अवश्य होना चाहिए। प्रत्यभिज्ञा __ न्याय, वैशेषिक और मीमासक प्रत्यभिज्ञा को प्रत्यक्ष से पृथक् नहीं मानते। क्षणिकवादी बौद्ध की दृष्टि में प्रत्यक्ष और स्मृति की संकलना हो भी कैसे सकती है।
जैन-दृष्टि के अनुसार यह प्रत्यक्ष ज्ञान हो नहीं सकता। प्रत्यक्ष का विषय होता है दृश्य वस्तु (वर्तमान-पर्यायव्यापी द्रव्य)। इसका (प्रत्यभिशा) का विषय बनता है संकलन-अतीत और प्रत्यक्ष की एकता, पूर्व और अपर पर्यायव्यापी द्रव्य, अथवा दो प्रत्यक्ष द्रन्यो या दो परोक्ष द्रव्यो का संकलन । (हमारा प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय-प्रत्यक्ष की माति त्रिकालविषयक नहीं होता, इसलिए उससे सामने खड़ा व्यक्ति जाना जा सकता है किन्तु यह वही व्यक्ति हैयह नहीं जाना जा सकता। उसकी एकता का बोध स्मृति के मेल से होता है, इसलिए यह अस्पष्ठ-परोक्ष है। प्रत्यक्ष और तर्क के मेल से होने वाला अनुमान स्वतन्त्र प्रमाण है, तव फिर प्रत्यक्ष और स्मृति के मेल से होने वाली प्रत्यभिज्ञा का स्वतन्त्र स्थान क्यो नहीं होना चाहिए!) . प्रत्यक्षद्वय के संकलन में दोनी वस्तुएं सामने होती है फिर भी उनका