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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [१०७ है कि अनन्त पदाथों में व्यक्तिगत एकता न होने पर भी विशेष-गुणगत समानता और सामान्य-गुणगत एकता है। अनन्त चेतन व्यक्तियों में चैतन्य गुण-कृत समानता और अनन्त चेतन व्यक्तियो में अचेतन गुण-कृत समानता है। वस्तुत गुण की दृष्टि से चेतन और अचेतन दोनो एक हैं। (एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से न सर्वथा भिन्न हैन सर्वथा अभिन्न है। सर्वथा अभिन्न नहीं है, इसलिए पदार्थों की नानात्मक सत्ता है और सर्वथा भिन्न नहीं है, इनलिए एकात्मक मत्ता है। विशेष गुण की दृष्टि से पदार्थ निरपेक्ष है । सामान्य गुण की दृष्टि से पदार्थ सापेक्ष है । पढाथों की एकता और अनेकता स्वय सिद्ध या सायोगिक है, इसलिए वह सदा रही है और रहेगी। इसलिए हमारा वैसा शान कभी सत्य नही हो सकता, जो अनेक को अवास्तविक मानकर एक को वास्तविक माने अथवा एक को अवास्तविक मानकर अनेक को वास्तविक माने।
जैन दर्शन का प्रसिद्ध वाक्य-'जे एग जाणइ, से सव्वं जाणई' जो एक को जानता है वह सबको जानता है, अद्वैत का बहुत बड़ा पोषक है २४ । किन्तु यह अद्वैत जेयत्व या प्रमेयत्व गुण की दृष्टि से है। जो ज्ञान एक शेय की अनन्त पयायों को जानता है, वह ज्ञेय मात्र को जानता है। जो एक शेय को मर्यस्प से नहीं जानता, वह सव शेयो को भी नहीं जानता। यही बात एक प्राचीन श्लोक बताता है
"एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्व भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः।
सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः।" 1 एक की जान लेने पर सबको जान लेने की बात अथवा सबको जान लेने पर एक को जान लेने की बात सर्वथा अद्वैत में तात्विक नहीं है। कारण कि उसमें एक ही वात्विक है, सब तात्विक नहीं । अनेकान्त-सम्मत शेय-दृष्टि से जो अद्वैत है, उसीमें-"एक और सब दोनो बात्विक हैं, इसलिए जो एक को जानता है, वही सवको और जो सवको जानता है, वही एक को जानता है"इसका पूर्ण सामञ्जस्य है।
तर्कशास्त्र के लेखक गुलावराय एम० ए० ने स्यादवाद को अनिश्चयसत्य मानकर . एक काल्पनिक भय की रेखा खीची है। जैसे-"जैनों के