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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
गार्थ सामने मौजूद घट की सत्ता के बारे मे जैन दर्शन से यदि प्रश्न पूछा जाए तो उत्तर निम्नप्रकार मिलेगा
घट यहाँ है ? - हो सकता है । (स्याद् अस्ति )
(२) घट यहाँ नही है
?
नही भी हो सकता है। (स्यान्नास्ति )
(३) क्या यहाँ घट है भी और नहीं भी है ? - है भी और नहीं भी हो सकता है । ( स्याद् अस्ति च नास्ति च )
(४) हो सकता है (स्याद्) क्या यह कहा जा सकता ( वक्तव्य ) है ? नहीं, "स्याद्” यह वक्तव्य है ।
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(५) “घट यहाँ हो सकता है” (स्याद् अस्ति ) यह कहा जा सकता है ? नही, "घट यहाँ हो सकता है", यह नहीं कहा जा सकता ।
(६) "घट यहाँ नहीं हो सकता" ( स्याद् नास्ति ) क्या यह कहा जा सकता है ? नही, घट यहाँ नही हो सकता, यह नहीं कहा जा सकता ।
(७) "घट यहाँ हो भी सकता है, नही भी हो सकता है ” –— क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, घट यहाँ हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है, यह नही कहा जा सकता
इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (वाद) की स्थापना न करना, जो कि संजय का बाद था, उसी को संजय के अनुयायियो के लुप्त हो जाने पर जैनी ने अपना लिया और उसकी चतुर्भुजी न्याय को सप्तभंगी में परिणत कर दिया २७
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(समीक्षा) ... यह गड्डुरी - प्रवाह क्यो चला और क्यो चलता जा रहा है पता नही । सजय के अनिश्चयवाद का स्याद्वाद से कोई वास्ता तक नही, फिर भी पिसा आटा बार-बार पिसा जा रहा है। संजय का वाद न सद्भाव बताता है और न असद्भाव २८ । अनेकान्त, विधि और प्रतिषेध दोनो का निश्चयपूर्वक प्रतिपादन करता है । अनेकान्त सिर्फ अनेकान्त ही नहीं, वह एकान्त भी है। प्रमाण हृष्टि को मुख्य मानने पर अनेकान्त फलता है और
नय द्दष्टि को मुख्य मानने पर एकान्त रे । एकान्त भी स्याद्वाद के अंकुश
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से परे-नही हो सकता । एकान्त असत् - एकान्त न बन जाय - "यह भी है"
को छोड़कर 'यही है' का रूप न ले ले, इसलिए वह जरूरी भी है।