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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
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चाहिए। एकान्तदृष्टि से व्यवहार भी नहीं चलता, इसलिए उसका स्वीकार अनाचार है। अनेकान्तदृष्टि से व्यवहार का भी लोप नहीं होता, इसलिए. उस का स्वीकार प्राचार है । इनके अनेक स्थानो का वर्णन करते हुए सूत्रकृतांग में बताया है
(१) पदार्थ नित्य ही है या अनित्य ही है-यह मानना अनाचार है। पदार्थ कथचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य-यह मानना आचार है।
(२) शास्ता-तीर्थकर, उनके शिष्य या भव्य, इनका सर्वथा उच्छेद हो जाएगा-संसार भव्य जीवन शून्य हो जाएगा, या मोक्ष होता ही नहीं यह मानना अनाचार है। भवस्थ केवली मुक्त होते हैं, इसलिए वे शाश्वत नहीं हैं
और प्रवाह की अपेक्षा केवली सदा रहते हैं, इसलिए शाश्वत भी है-यह मानना आचार है।
(३) सब जीव विसदृश ही हैं या सदृश ही हैं-यह मानना अनाचार है। एचैतन्य, अमूर्तत्व आदि की दृष्टि से प्राणी आपस में समान भी हैं और कर्म, गति, जाति, विकास आदि की दृष्टि से विलक्षण भी है-यह मानना आचार है।
(४) सब जीव कर्म की गांठ से बन्धे हुए ही रहेंगे अथवा सब छूट जाएंगे-यह मानना अनाचार है । काल, लब्धि, वीर्य, पराक्रम आदि सामग्री पाने वाले मुक्त होगे भी और नही पाने वाले नहीं भी होंगे-यह मानना आचार है।
(५) छोटे और बड़े जीवों को मारने में पाप सरीखा होता है अथवा सरीखा नहीं होता-यह मानना अनाचार है। हिंसा में बन्ध की दृष्टि से । सादृश्य भी है और बन्ध की मन्दता, तीव्रता की दृष्टि से असादृश्य भी यह मानना आचार है।
(६) आधाकर्म आहार खाने से मुनि कर्म से लित होते ही हैं या नहीं ही होते-यह मानना अनाचार है। जान बूझकर आधा कर्म आहार खाने से लिप्त होते हैं और शुद्ध नीति से व्यवहार में शुद्ध जानकर लिया हुआ आधाकर्म आहार खाने से लिस नही भी होते यह मानना प्राचार है।