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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
मिलता, जिसका मूल या पहला तत्त्व अहिंसा न हो। तब फिर जैन धर्म के साथ अहिंसा का ऐसा तादात्म्य क्यो? यहाँ विचार कुछ आगे बढ़ता है। __अहिंसा का विचार अनेक भूमिकाओं पर विकसित हुआ है। कायिक, वाचिक और मानसिक अहिंसा के बारे में अनेक धर्मों में विभिन्न धारणाए मिलती हैं। स्थूल रूप में सूक्षमता के वीज भी न मिलते हों, वैसी वात नही, किन्तु वौद्धिक अहिंसा के क्षेत्र में भगवान् महावीर से जो अनेकान्त-दृष्टि, मिली, वही खास कारण है कि जैन धर्म के साथ अहिंसा का अविच्छिन्न सम्बन्ध हो चला। ___ भगवान् महावीर ने देखा कि हिंसा की जड़ विचारो की विप्रतिपत्ति है। वैचारिक असमन्वय से मानसिक उत्तेजना बढ़ती है और वह फिर वाचिक एवं कायिक हिंसा के रूप में अभिव्यक्त होती है। शरीर जड़ है, वाणी भी जड़ है, जड़ मे हिंसा-अहिंसा के भाव नहीं होते। इनकी उद्भव-भूमि मानसिक चेतना है। उसकी भूमिकाएं अनन्त हैं।
प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म हैं । उनको जानने के लिए अनन्त दृष्टियां हैं। प्रत्येक दृष्टि सत्याश है। सब धर्मों का वर्गीकृत रूप अखण्ड वस्तु और सत्यांशी का वगीकरण अखण्ड सत्य होता है।
अखण्ड वस्तु जानी जा सकती है किन्तु एक शब्द के द्वारा एक समय में कही नही जा सकती। मनुष्य जो कुछ कहता है, उसमे वस्तु के किसी एक पहलू का निरुपण होता है। वस्तु के जितने पहलू हैं, उतने ही सत्य हैं जितने सत्य है, उतने ही द्रष्टा के विचार हैं। जितने विचार है, उतनी ही आकांक्षाएं हैं। जितनी आकांक्षाएं हैं, उतने ही कहने के तरीके हैं। जितने तरीके हैं, उतने ही मतवाद है। मतवाद एक केन्द्र-बिन्दु है। उसके चारो ओर विवाद-संवाद, संघर्ष समन्वय, हिंसा और अहिंसा की परिक्रमा लगती है। एक से अनेक के सम्बन्ध जुड़ते हैं, सत्य या असत्य के प्रश्न खड़े होने लगते हैं। बस यही से विचारो का स्रोत दो धाराओ मे वह चलता है- "अनेकान्त या सत्-एकान्त दृष्टि-अहिंसा, असत्-एकान्त दृष्टि-हिंसा ___ कोई वात या कोई शब्द सही है या गलत इसकी परख करने के लिए एक दृष्टि की अनेक धाराएं चाहिए। वक्ता ने जो शब्द कहा, तब वह विन