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जैन दर्शन में प्रमाण भीमासा
होती है । "जहाँ वाच्य-वाचक भाव नहीं होता, वहाँ शब्द के अनुसार अर्थ के प्रति प्रवृत्ति नही होती।" शब्द का याथार्थ्य और अयाथार्थ्य
शब्द्र पौद्गलिक होता है। वह अपने आप में यथार्थ या अयथार्थ कुछ भी नही होता। वक्ता के द्वारा उसका यथार्थ या अयथार्थ प्रयोग होता है। यथार्थ प्रयोग के स्याद्वाद और नय-ये दो प्रकार हैं। दुर्णय इमलिए आगमामास होता है कि वह यथार्थ प्रयोग नही होता)
वचन की सत्यता के दो पहलू हैं, प्रयोगकालीन और अर्थग्रहणकालीन एक वक्ता पर निर्भर है, दूसरा श्रौता पर ।, वक्ता यथार्थ प्रयोग करता है, वह सत्य है । श्रोता यथार्थ ग्रहण क्रता है, वह सत्य है। ये दोनों सत्य अपेक्षा से जुड़े हुए हैं। सत्य वचन की दस अपेक्षाए'
सत्य वचन के लिए दस अपेक्षाए है१६ :(१) जनपद, देश या राष्ट्र की अपेक्षा मत्य । (२) सम्मत या रूढि-सत्य। (३) स्थापना की अपेक्षा सत्य । (४) नाम की अपेक्षा सत्य। (५) रूप की अपेक्षा सत्य । (६) प्रतीत्य-सत्य-दूसरी वस्तु की अपेक्षा सत्य । __जैसे-कनिष्ठा की अपेक्षा अनामिका बड़ी और मध्यमा की अपेक्षा छोटी है। एक ही वस्तु छोटी और बड़ी दोनों हो; यह विरुद्ध बात है, ऐसा आरोप आता है किन्तु यह ठीक नहीं। एक ही वस्तु का छोटापन और मोटापन दोनो तात्त्विक हैं और परस्पर विरुद्ध भी नहीं हैं। इसलिए नहीं है कि दोनो के निमित्त दो है। यदि अनामिका को एक ही कनिष्ठा या मध्यमा की अपेक्षा छोटी-बड़ी कहा जाय तब विरोध आता है किन्तु "छोटी की अपेक्षा बड़ी और बड़ी की अपेक्षा छोटी" इसमें कोई विरोध नही आता एक निमित्त से परस्पर विरोधी दो कार्य नही हो सकते किन्तु दो निमित्त से वैसे दी कार्य होने में कोई आपत्ति नहीं ॥ छोटापन और मोटापन तालिक नहीं है। ऋजुता