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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [८९ स्पष्ट आत्म-प्रतिभान होता है, वह मानस-प्रत्यक्ष में चला जाता है।
प्रसाद और उद्वेग के निश्चित लिङ्ग से नो प्रिय-अप्रिय फल प्राति का प्रतिमान होता है, वह अनुमान की श्रेणी में है । ___ दूसरी परम्परा-प्रातिम शान न केवल ज्ञान है, न श्रुतशान और न ज्ञानान्तर "। इसकी दशा ठीक अरुणोदय-संध्या जैसी है । अरुणोदय न दिन है, न रात और न दिन-रात से अतिरिक्त है । यह आकस्मिक प्रत्यक्ष है और यह उत्कृष्ट क्षयोपशम-निरावरण दशा या योग-शक्ति से उत्पन्न होता है ।
प्रातिम ज्ञान विवेक-जनित ज्ञान का पूर्व रूप है। सूर्योदय से कुछ पूर्व प्रकट होने वाली सूर्य की प्रभा से मनुष्य सब वस्तुओं को देख सकता है, वैसे ही प्रातिम ज्ञान के द्वारा योगी सब बातों को जान लेता है ५० । समन्वय
वस्तुतः जैन ज्ञान-मीमांसा के अनुसार प्रातिम ज्ञान अनुत-निश्रित मति ज्ञान का एक प्रकार है, जिसका नाम है-"औत्पतिकी बुद्धि ।" सूत्र कृतांग (१३) में आए हुए 'पडिहाणव' प्रतिभावान् का अर्थ वृत्तिकार ने औत्पत्तिकी बुद्धि किया है | नन्दी में उसके निम्न लक्षण बतलाए है-'पहले अदृष्टअश्रुत, अज्ञात अर्थ का तत्काल बुद्धि के उत्पादकाल में अपने आप सम्यग निर्णय हो जाता है और उसका परिच्छेद्य अर्थ के साथ अवाधित योग होता है, वह औत्पत्तिकी बुद्धि है ५५ । ___ मति शन के दो भेद होते हैं-श्रुतनिश्रित और अश्रुत निश्रित ५३१ श्रुत निक्षित के अवग्रह आदि चार मेद व्यावहारिक प्रत्यन में चले जाते हैं और "स्मृति आदि चार मैद् परोक्ष में । अश्रुत निश्रित मति के चार मैद औत्पत्तिकी
आदि बुद्धिचतुष्टय का समावेश किसी प्रमाण के अन्तर्गत किया हुना. नहीं. मिलता।
जिनमणि ने बुद्धि चतुष्टय में भी अवग्रह आदि की योजना की है.५, परन्तु उसका सम्बन्ध मति ज्ञान के रू मेद विषयक चर्चा से है ५६१ अश्रुत निक्षित मति को किस प्रमाण में समाविष्ट करना चाहिए, यह वहाँ मुख्य चर्चनीय नहीं है।
औपत्तिकी आदि बुद्धि चतुष्टय में अवग्रह आदि होते हैं, फिर भी यह व्यवहार प्रत्यक्ष से पूर्ण समता नही रखता। उसमें पदार्थ का इन्द्रिय से