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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
साक्षात् होता है, इसमें नहीं। वह शास्त्रोपदेशजनित संस्कार होता है और यह आत्मा की सहज स्फुरणा। इसलिए यह केवल और श्रुत के वीच का ही होना चाहिए तथा इसका प्रातिम के साथ पूर्ण सामंजस्य दीखता है। इसे केवल
और श्रुत के बीच का ज्ञान इसलिए मानना चाहिए कि इससे न तो समस्त द्रव्य पर्यायों का ज्ञान होता है और न यह इन्द्रिय लिंग आदि की सहायता तथा शास्त्राभ्यास आदि के निमित्त से उत्पन्न होता है। पहली परम्परा के प्रातिभज्ञान के लक्षण इससे मिन्न नहीं हैं। मानस-प्रत्यक्ष इसी का नामान्तर हो सकता है और जो निश्चित लिङ्ग के द्वारा होने वाला प्रातिम कहा गया है, वह वास्तव में अनुमान है। जो उसे प्रातिम मानते हैं, उनकी अपेक्षा उसे प्रातिम कहकर उसे अनुमान के अन्तर्गत किया गया है। प्रमाता और प्रमाण का भेदाभेद
प्रमाता आत्मा है, वस्तु है । प्रमाण निर्णायक ज्ञान है, आत्मा का गुण है। प्रमेय आत्मा भी है और आत्म-अतिरिक्त पदार्थ भी। प्रमिति प्रमाण का फल है।
गुणी से गुण न अत्यन्त भिन्न होता है और न अत्यन्त अभिन्न किन्तु दोनों मिन्नाभिन्न होते हैं। प्रमाण प्रमाता में ही होता है, इस दृष्टि से इनमें कथंचिद् अमेद है। कर्ता और करण के रूप में ये भिन्न है- समाता कर्ता है
और प्रमाण करण । अभेद-कक्षा में ज्ञाता और शन का साधन-ये दोनों आत्मा या जीव कहलाते हैं। भेद कक्षा मे आत्मा ज्ञाता कहलाता है और ज्ञान जानने का साधन ५०1, ज्ञान आत्मा ही है, आत्मा ज्ञान भी है और शान व्यतिरिक्त मी-इस दृष्टि से भी प्रमाता और प्रमाण में भेद है५८। प्रमाता व प्रमेय का भेदाभेद __ प्रमाता चेतन ही होता है, प्रमेय चेतन और अचेतन दोनों होते हैं, इस दृष्टि से प्रमाता प्रमेय से भिन्न है। शेर-काल में जो आत्मा प्रमेय बनती है, वही शान-काल में प्रमाता बन जाती है, इस दृष्टि से ये अभिन्न मी हैं। प्रमाण और फल का भेदाभेद . प्रमाण साधन है और फल साध्य इस दृष्टि से दोनों मिन्न हैं। प्रमाण
और फल इन दोनो का अधिकरण एक ही प्रमाता होता है। प्रमाप रूप में -परिणत आत्मा ही फल रूप में परिणत होती है-इस दृष्टि से ये अभिन्न भी हैं ।
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