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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा १०३ अपेक्षा-दृष्टि से विरोध होना एक बात है और अपेक्षा-दृष्टि को संशयदृष्टि या कदाचित् दृष्टि दिखाकर विरोध करना दूसरी बात ।
(हॉ, जैन-आगम मे कदाचित् के अर्थ में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग हुआ है। किन्तु वह स्याद्वाद नहीं; उसकी संज्ञा भजना' है। भजना 'नियम' की प्रतिपक्षी :है। दो धीं या धर्मों का साहचर्य निश्चित होता है, वह वियम है। और वह कभी होता है, कभी नही होता-यह भजना है।
व्याप्य के होने पर व्यापक के, कार्य होने पर कारण के, उत्तरवर्ती होने पर पूर्ववर्ती के और सहभावी रूप में एक के होने पर दूसरे के होने का नियम होता है। व्यापक में व्याप्य की, कारण में कार्य की, पूर्ववर्ती मे उत्तरवती की
और संयोग की भजना (विकल्प) होती है। इसलिए स्यावाद संशय और भजना (कदाचिदवाद) दोनो से पृथक् है। इनकी आकृति-रचना भी एक सी नही है।) देखिए निम्नवती यन्त्र :
१-भजनाअमि कदाचित् सधूम होती है । निष्कर्ष-अमुक संयोग दशा में अग्नि कदाचित् निधूम होती है
सधूम, अन्यथा निधूम, २-संशयपदार्थ नित्य है
निष्कर्ष-कुछ पता नहीं। या पदार्य अनित्य है ३-स्याद्वादपदार्थ नित्य भी है
निष्कर्ष-पदार्थ नित्यानित्य है। पदार्थ अनित्य भी है
भजना अनेको की एकत्र स्थिति या अ-स्थिति बताती है। इसलिए भजना साहचर्य का विकल्प है।
संशय एक-रूप पदार्थ मे अनेक रूपो की कल्पना करता है। संशय अनिपायक विकल्प है।
स्वाद्वाद अनेक धर्मात्मक पदाथों में अनेक धर्मों की निश्चित स्थिति बताता है । स्यादवाद निर्णायक विकल्प है।
भजना कलापेक्ष है, जैसे वह वहाँ कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं