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१०२] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा जैन दर्शन की मान्य दृष्टि को हृदयंगम किये बिना किया-यह कहते हुए हमारी तटस्थ बुद्धि में कोई कम्पन नहीं होता।
इस परम्परा के उपजीवी विद्वान् डा. देवराज आज फिर एक बार उसकी पुनरावृत्ति चाहते हैं। वे लिखते हैं-"स्यादवाद का वाच्यार्थ है शायदवाद।" "अंग्रेजी में इसे प्रोवेविलिज्म (Probabilism) कह सकते हैं । अपने अतिरंजित रूप में स्यादवाद संदेहवाद का भाई है। वास्तव मे जैनियों को भगवान् बुद्ध की तरह तत्त्व-दर्शन सम्बन्धी प्रश्नो पर मौन धारण करना। था। जिसके आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म आदि पर निश्चित सिद्धान्त हो, उसके मुख से स्यावाद की दुहाई शोभा नही देती "
(समीक्षा)...महात्मा बुद्ध की भाति भगवान् महावीर के तात्विक प्रश्नी पर मौन रखने की सम्मति देते हुए भी विद्वान् लेखक यह स्वीकार करते हैं कि भगवान् महावीर के आत्मा आदि विषयक सिद्धान्त निश्चित हैं। उन्हे
आपत्ति इस पर है-एक ओर निश्चित सिद्धान्त और दूसरी ओर स्याद्वादवे इन दोनों को एक साथ देखना नहीं चाहते। यह ठीक भी है। निश्चित सिद्धान्त के लिए अनिश्चयवाद की दुहाई शोभा नहीं देती। किन्तु जैवदृष्टि ऐसी नहीं है। वह पदार्थ के अनेक विरोधी धमों को निश्चित किन्तु अनेक विन्दुश्री द्वारा ग्रहण करती है। आश्चर्य की बात यह है कि बालोचक विद्वान् स्यादवाद की अनेक-विरोधी-धर्म-ग्राहक स्थिति देखते हैं, वैसे उसकी निश्चित अपेक्षा को नहीं देखते। यदि दोनो पहलू सम दृष्टि से देखे जाते तो स्यावाद को संशयवाद कहने का मौका ही नहीं मिलता। विद्वान् लेखक ने अपनी दूसरी पुस्तक-"पूर्वी और पश्चिमी दर्शन में स्यात का अर्थ कदाचित किया है । इसमे कोई संदेह नही-"स्यात्” का अर्थ संशय भी होता है और "कदाचित् भी। किन्तु 'स्याद्वाद', जो अनेकान्त दृष्टि का प्रतिनिधि है, में 'स्यात्' को कथंचित् या अपेक्षा के सुर्य में प्रयुक्त किया गया. है। स्यावाद का अर्थ है- कथंचितवाद या अपेक्षावाद । आलोचकों की दृष्टि स्याद्वाद में प्रयुक्त 'स्यात् का संशय और कदाचित् अर्थ करने की ओर दौड़ती है तो कथंचित् और अपेक्षा की ओर क्यों नही दौड़ती /