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१०४] जैन दर्शन में प्रमाण मौमांसा होता। संशय दोषपूर्ण सामग्री-सापेक्ष है। पदार्थ का स्वरूप निश्चित होता है। किन्तु दोषपूर्ण सामग्री से आत्मा का संशय शान अनिश्चित वन जाता है। स्याद्वाद पदार्थगत और ज्ञानगत उभय है । पदार्थ का स्वरूप भी अनेकान्तात्मक है और हमारे ज्ञान मे भी वह अनेकान्तात्मक प्रतिभासित होता है।
_डा. वलदेव उपाध्याय ने स्याद्वाद को संशयवाद का रूपान्तर नही माना है। परन्तु अनेकान्तवाद का दार्शनिक विवेचन उन्हे अनेक अंशो में त्रुटिपूर्ण लगता है। वे लिखते हैं---"यह अनेकान्तवाद संशयवाद का रूपान्तर नहीं है। परन्तु अनेकान्तवाद का दार्शनिक विवेचन अनेक अंश मे त्रुटिपूर्ण प्रतीत हो रहा है। रिजैन दर्शन ने वस्तु-विशेष के विषय में होने वाली विविध लौकिक कल्पनाओ के एकीकरण का श्लाध्य प्रयत्न किया है, परन्तु उसका उसी स्थान पर ठहर जाना दार्शनिक दृष्टि से दोष ही माना जाएगा। यह निश्चित ही है कि इसी समन्वय-दृष्टि से वह पदाथो के विभिन्न रूपो का समीकरण करता जाता तो समग्र विश्व में अनुस्यूत परम तत्त्व तक अवश्य हीर पहुंच जाता । इसी दृष्टि को ध्यान में रख कर शंकराचार्य ने इस 'स्याद्वाद' का मार्मिक खण्डन अपने शारीरिक भाष्य (२-२-३३ ) मे प्रवल युक्तियो के सहारे किया है २०
(समीक्षा)"स्यादवाद का एकीकरण वेदान्त के दृष्टिकोण के सर्वथा अनुकूल नहीं, इसीलिए वह उपाध्यायजी को त्रुटिपूर्ण लगता हो तव तो दूसरी बात है अन्यथा हमे कहना होगा कि स्याद्वाद में वह श्रुटि नही जो दिखाई गई है। अनेकान्त दृष्टि को पर-सग्रह की दृष्टि से 'विश्वमेकम्' तक का एकीकरण मान्य है। किन्तु यही दृष्टि सर्वतोभद्र सत्य है, यह बात मान्य नहीं है । महा सत्ता की दृष्टि से सब का एकीकरण हो सकता है, सब दृष्टियो से नही। चैतन्य की दृष्टि से चेतन और अचेतन की मूल सत्ता एक नहीं हो सकती। यदि अचेतन का उपादान या मूल स्रोत चेतन बन सकता है तव 'अचेतन चेतन का उपादान या आदि स्रोत बनता है' यह भूतवादी धारणा असम्भव नही मानी जा सकती।