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जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा
उनके अनेको गुण समान भी होते हैं । चेतन गुण की दृष्टि से जीव अचेतन पुद्गल से भिन्न है तो अस्तित्व या प्रमेय गुण की अपेक्षा वह पुद्गल से अभिन्न भी है । कोई भी पदार्थ दूसरे पदार्थ से न सर्वथा भिन्न है और
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न सर्वथा अभिन्न । किन्तु भिन्नाभिन्न है । विशेषगुण की दृष्टि से भिन्न है और सामान्य गुण की दृष्टि से अभिन्न १० । भगवती सूत्र हमे बताता है - "जीव पुद्गल भी है और पुद्गली भी है" ११ शरीर आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी है १३ । शरीर रूपी भी है और है और चित्त भी
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अरूपी भी है, सचित्त भी
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जीव की पुद्गल संज्ञा है, इसलिए वह पुद्गल है । पौद्गलिक इन्द्रिय सहित है, पुद्गल का उपभोक्ता है, इसलिए पुद्गली है अथवा जीव और पुद्गल में निमित्त नैमित्तिक भाव है ( संसारी दशा में जीव के निमित्त से पुदगल की परिणति होती है और पुद्गल के निमित से जीव की परिणति होती है ) इसलिए पुद्गली है । शरीर आत्मा की पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति का साधन बनता है, इसलिए वह उससे अभिन्न है । श्रात्मा चेतन है, काय चेतन है, वह पुनर्मवी है काय एकभवी है - इसलिए दोनो भिन्न हैं । स्थूल शरीर ( औदारिक- शरीर ) की अपक्षा वह रूपी है और सूक्ष्मशरीर ( कार्मण शरीर ) की अपेक्षा वह अरूपी है।
शरीर आत्मा से कथंचित् पृथक् भी है, इस दृष्टि से जीवित शरीर चेतन है । वह पृथक् भी है इस दृष्टि से अचित्त है । मृतशरीर भी अचित्त है । रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् है, स्यात् नहीं है और स्यात् अवतव्य है ૧૪ 1 वस्तु स्व-दृष्टि से है, पर दृष्टि से नहीं है, इसीलिए वह सत्-असत् उभयरूप है । एक काल मे एक धर्म की अपेक्षा वस्तु वक्तव्य है और एक काल में अनेक धर्मों की अपेक्षा वस्तु अवक्तव्य है । इसलिए वह वक्तव्य-अवक्तव्य उभयरूप है । यहाँ भी सन्देह नही है -- जिस रूप मे सत् है, उस रूप में सत् ही है और जिस रूप में असत् है, उस रूप में असत् हो है । वक्तव्य - अवक्तव्य का भी यही रूप बनता है ।
इस श्रागम-पद्धति के आधार पर दार्शनिक युग में स्यादवाद का रूपचतुष्टय बना:--