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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा .(३) जो अर्थ 'है' का आधार है, वहीं अन्य धर्मो का है। जिसमें एक है, उसीमें सब है-इस अर्थ-दृष्टि या आधार भूत द्रव्य की दृष्टि से सब धर्म एक हैं-समानाधिकरण हैं।
(४) वस्तु के साथ 'है' का जो अविश्वग्भाव या अपृथग्भाव सम्बन्ध है, वही अन्य धर्मों का है-इस तादात्म्य सम्बन्ध की दृष्टि से भी सब धर्म अभिन्न हैं।
(५) जैसे वस्तु के स्वरूप-निर्माण में 'हे' अपना योग देता है, वैसे ही दूसरे धमों का भी उसके स्वरूप-निर्माण में योग है। इस योग या उपचार की दृष्टि से भी सब मे अभेद है। पके हुए आम मे मिठास और पीलेपन का उपचार मिन्न नहीं होता। यही स्थिति शेष सब धर्मों की है।
(६) जो वस्तु सम्बन्धी क्षेत्र है' का होता है, वही अन्य धर्मों का होता है-इस गुणी-देश की दृष्टि से भी सब धर्मों में भेद नही है। उदाहरण स्वरूप आम के जिस भाग में मिठास है, उसीमे पीलापन है। इस प्रकार वस्तु के देश-भाग की दृष्टि से वे दोनो एक रूप हैं।
(७) वस्त्वात्मा का 'है' के साथ जो संसर्ग होता है, वही अन्य धर्मों के साथ होता है इस संसर्ग की दृष्टि से भी सव धर्म भिन्न नही है। आम का 'मिठास के साथ होने वाला सम्बन्ध उसके पीलेपन के साथ होने वाले सम्बन्ध से भिन्न नहीं होता। इसलिए वे दोनो अभिन्न हैं । धर्म और धर्मी मिन्नामिन्न होते हैं। अविष्वगमाव सम्बन्ध मे अभेद प्रधान होता है और मेद गौण।
(८) जो 'है' शब्द अस्तित्व धर्म वाली वस्तु का वाचक है, वह शेष अनन्त धर्म वाली वस्तु का भी वाचक है-इस शब्द-दृष्टि से भी सव धर्म अभिन्न हैं। काल आदि की दृष्टि से भिन्न धर्मों का अभेद-उपचार
(१) समकाल एक में अनेक गुण हों, यह सम्भव नहीं, यदि हो तो उनका आश्रय मिन्न होगा।
(२) अनेक विध गुणो का आत्मरूप एक हो, यह सम्भव नही, यदि.हो तो उन गुणों में मेद नही माना जाएगा।