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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
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जीव और शरीर भिन्न या अभिन्न मृत्यु के बाद तथागत होते हैं या नहीं होते ! --होते भी हैं, नहीं भी होते, न होते हैं, न नहीं भी होते हैं ४०१ इन प्रश्नो को अव्याकृत कहा है। बौद्ध दर्शन का यह निषेधक दृष्टिकोण शाश्वतवाद और उच्छेदवाद, दोनों का अस्वीकार है। इसमें जैन- दृष्टि का मतद्वैध नहीं है किन्तु वह इससे आगे बढ़ती हैं। भगवान् महावीर ने शाश्वतं और उच्छेद दोनों का समन्वय कर विधायक दृष्टिकोण सामने रखा। वही अनेकान्तदर्शन और स्याद्वाद है ।
प्रमाण - समन्वय
उपमान* :--
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" सादृश्य प्रत्यभिज्ञा जैन न्याय का उपमान है
अर्थापत्ति :
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अनुमान में जैसे साध्य साधन का निश्चित अविनाभाव होता है, वैसे ही श्रर्थापत्ति में भी होता है। पुष्ट देवदत्त दिन में नहीं खाता --- इसका अर्थ यह आया कि वह रात को अवश्य खाता है। इसके साध्य देवदत्त के रात्रिभोजन के साथ 'पुष्टत्व' साधन का निश्चित अविनाभाव है । इसलिए यह अनुमान से भिन्न नही है कोरा कथन-भेद है ।
श्रभाव ३ :--
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(अभाव प्रमाण दो विरोधियों में से एक के भाव से दूसरे का प्रभाव और एक के अभाव से दूसरे का भाव सिद्ध करने वाला है । केवल भूतल देखने से घट का ज्ञान नही होता । भूतल में घट, पट आदि अनेक वस्तुओ का अभाव हो सकता है, इसलिए घट-रिक्त भूतल में घट के अभाव का प्रतियोगी जो घट है, उसका स्मरण करने पर ही अभाव के द्वारा भूतल में घटाभाव जाना जा सकता है 1
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-दृष्टि से - (१) 'वह घट भूतल है इसका समावेश स्मरण में, (२) 'यह वही अष्ट भूतल है' — इसका प्रत्यभिशा में, (३) 'जो अग्निमान् नहीं होता, वह धूमवान् नहीं होता' - इसका तर्क में, (४) 'इस भूतल में घट नही है, क्योंकि यहाँ घट का जो स्वभाव मिलना चाहिए, वह नही मिल
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