________________
जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा निश्चयपूर्वक नहीं बोलना चाहिए। न मालूम जो काम करने का संकल्प है, वह अधूरा रह जाय। इसलिए भावी कार्य के लिए 'अमुक कार्य करने का रविचार है' या 'यह होना सम्भव है-यह भाषा होनी चाहिए। यह कार्य से सम्बन्धित सत्यभाषा की मीमांसा है, तत्त्व-निरूपण से इसका सम्बन्ध नहीं है। तत्त्व प्रतिपादन के अवसर पर अपेक्षापूर्वक निश्चय भाषा बोलने में कोई आपत्ति नहीं है ।
महात्मा बुद्ध ने कहा :(१) मेरी आत्मा है। (२) मेरी आत्मा नही है। (३) मैं आत्मा को आत्मा समझता हूँ। (४) मैं अनात्मा को आत्मा समझता हूँ। (५) यह जो मेरी आत्मा है, वह पुण्य और पाप कर्म के विपाक की
भोगी है। (६) यह मेरी आत्मा नित्य है, ध्रुव है, शाश्वत है, अविपरिणामिधर्मा है, जैसी है वैसी सदैव रहेगी ।
इन छह दृष्टियो में फंसकर अज्ञानी जीव जरा-मरण से मुक्त नहीं होता इसलिए साधक को इनमें फंसना उचित नहीं । उनके विचारानुसार-"मैं भूत काल में क्या था ? मैं भविष्यत् काल में क्या होऊंगा ! मैं क्या हूँ ! यह सत्त्व कहाँ से आया १ यह कहाँ जाएगा। इस प्रकार का चिन्तन 'अयोनिसो मनसिकार' विचार का अयोग्य ढग है। इससे नये आस्रव उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न आस्रव वृद्धिगत होते है।"
भगवान् महावीर का सिद्धान्त ठीक इसके विपरीत था। उन्होने कहा(१) आत्मा नहीं है। (२) आत्मां नित्य नहीं है। (३) आत्मा कर्म की कर्ता नहीं है। (v) आत्मा कर्म-फल की भोका नहीं है। (५) निर्वाण नहीं है। (६) निर्वाण का उपाय नहीं है ।