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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
परभवगामी जीव अन् इन्द्रिय जाता है। ज्ञान शक्ति प्रात्मा में बनी रहती है, इस दृष्टि से वह स्-इन्द्रिय जाता है २५ ।
गौतम-"भगवन् ! दुःख आत्मकृत है, परकृत है या उभयकृत ?" भगवान्-“दुःख आत्मकृत है, परकृत नहीं है, उभयकृत नहीं २६॥"
महात्मा बुद्ध शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनो को सत्य नही मानते थे। उनसे पूछा गया
"भगवन् गौतम ! क्या दुःख स्वयकृत है" "काश्यप ! ऐसा नहीं है। "क्या दुःख परकृत है?" "नही। "क्या दुःख स्वकृत और परकृत है ?" "नहीं" "क्या अस्वकृत अपरकृत दुःख है "
"तब क्या है ? आप तो सभी प्रश्नों का उत्तर नकार में देते हैं, ऐसा क्यों ?
दुख स्वकृत है, ऐसा कहने का अर्थ होता है कि जो करता है, वही भोगता है, यह शाश्वतवाद है । दुःख परकृत है ऐसा कहने का अर्थ होता है कि दुःख करने वाला कोई दूसरा है और उसे भोगने वाला कोई दूसरा, यह उच्छेदवाद है ?" उनने इन दोनो को छोड़कर मध्यम मार्ग:मतीत्यसमुत्पाद. 'का उपदेश दिया। उनकी दृष्टि में उत्तर पूर्व से सर्वथा असम्बद्ध हो, अपूर्व हो यह बात भी नही, किन्तु पूर्व के अस्तित्व के कारण ही उत्तर होता है। पूर्व की सारी शक्ति उत्तर में आ जाती है। पूर्व का कुल संस्कार उत्तर को मिल जाता है। अतएव पूर्व अब उत्तर रूप मे अस्तित्व में हैं। उत्तर पूर्व से सर्वथा भिन्न भी नही, अभिन्न भी नही किन्तु अन्याकृत है, क्योंकि भिन्न कहने पर उच्छेदवाद और अमिन्न कहने पर शाश्वतवाद होता है"२१ महात्मा बुद्ध को ये दोनों वाद मान्य नही थे, अतएवं ऐसे प्रश्नों का उन्होंने अन्याकृत कहकर उत्तर दिया।