________________
जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
[१
और वनता की भाँति दूसरे निमित्त की अपेक्षा रखे बिना प्रतीत नहीं होती। इसलिए उनकी प्रतीति दूसरे की अपेक्षा से होती है, इसलिए वे काल्पनिक हैं, ऐसी शंका होती है पर समझने पर बात ऐसी नहीं है। वस्तु में दो प्रकार केधर्म होते हैं:
(१) परप्रतीति-सापेक्ष-सहकारी द्वारा व्यक्त । (२) परप्रतीति-निरपेक्ष स्वतः व्यक्त ।
अस्तित्व आदि गुण स्वतः व्यक्त होते हैं। छोटा, बड़ा आदि धर्म महकारी द्वारा व्यक्त होते हैं। गुलाब में सुरभि अपने आप व्यक्त है। पृथ्वी मे गन्ध पानी के संयोग से व्यक्त होती है।
छोटा, वडा-ये धर्म काल्पनिक हो तो एक वस्तु में दूसरी वस्तु के समावेश की (बड़ी वस्तु में छोटी के समाने की) बात अनहोनी होती। इसलिए हमें मानना चाहिए कि सहकारी व्यंग धर्म काल्पनिक नहीं है ११ वस्तु ' में अनन्त परिणतियो की क्षमता होती है। जैसा जैसा सहकारी का सन्निधान होता है वेसा ही उमका रूप बन जाता है। "कोई व्यक्ति निकट से लम्या
और वही दूर से ठिंगना दीखता है, पर वह लम्बा और ठिंगना एक साथ नहीं हो सकता। अतः लम्वा व ठिंगना केवल मनस् के विचार मात्र हैं।" वर्कले का यह मत उचित नही है। लम्बा और ठिंगना ये केवल मनस् के विचार मात्र होते तो दूरी और सामीप्य सापेक्ष नहीं होते। उक्त दोनो धर्म सापेक्ष हैं- एक व्यक्ति जैसे लम्बे व्यक्ति की अपेक्षा ठिंगना और ठिंगने की अपेक्षा लम्बा हो सकता है; वैसे ही एक ही व्यक्ति दूरी की अपेक्षा ठिंगना और सामीप्य की अपेक्षा लम्बा हो सकता है। लम्बाई और ठिंगनापन एक साथ नहीं होते, 'भिन्न-भिन्न सहकारियो द्वारा भिन्न-भिन्न काल में अभिव्यक्त होते हैं। सामीप्य की अपेक्षा लम्बाई सत्य है और दूरी की अपेक्षा ठिंगनापन।
(७) व्यवहारसत्य-औपचारिक सत्य-पर्वत जल रहा है। (८) मावसत्य-व्यक्त पर्याय की अपेक्षा से सत्य-दुध सफेद है । (९) योगसत्य-सम्बन्ध सत्य । (१०) औपम्य-सत्य।