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जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा
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शब्द की अर्थ बोधकता
शब्द अर्थ का बोधक बनता है, इसके दो हेतु हैं ( १ ) स्वाभाविक ( २ ) समय या संकेत 13 नैयायिक स्वाभाविक शक्ति को स्वीकार नहीं करते । वे केवल संकेत को ही अर्थशान का हेतु मानते हैं १४ | इस पर जैन - दृष्टि यह हैं कि यदि शब्द में अर्थ बोधक शक्ति सहज नही होती तो उसमें संकेत भी नही किया जा सकता । सकेत रूढ़ि है, वह व्यापक नहीं । "अमुक वस्तु के लिए अमुक शब्द " -- यह मान्यता है । देश काल के भेद से यह अनेक भेद वाली होती है। एक देश में एक शब्द का कुछ ही । हमें इस सकेत या मान्यता के आधार पर दृष्टि सकेत का आधार है शब्द की सहज अर्थ प्रकाशन शक्ति । सकता है, किसको बताए, यह बात संकेत पर निर्भर है। और अज्ञातकालीन दोनों प्रकार के होते हैं। अर्थ की अनेकता के कारण शब्द के अनेक रूप बनते हैं, जैसे- जातिवाचक, व्यक्तिवाचक, क्रियावाचक
अर्थ कुछ ही होता है और दूसरे देश में
डालनी चाहिए ।
शब्द अर्थ को बता
संकेत शातकालीन
आदि-आदि ।
शब्द और अर्थ का सम्बन्ध
शब्द और अर्थ का वाच्य वाचकभाव सम्बन्ध है । वाध्य से वाचक न सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न । सर्वथा मेद होता तो शब्द के द्वारा अर्थ का ज्ञान नही होता । वाच्य को अपनी सत्ता के ज्ञापन के लिए वाचक चाहिए और वाचक को अपनी सार्थकता के लिए वाच्य चाहिए। शब्द की वाचकपर्याय वाच्य के निमित्त से बनती है और अर्थ की वायपर्याय शब्द के निमित्त से बनती है, इसलिए दोनों में कथंचित् तादात्म्य है । सर्वथा अमेद इसलिए नहीं कि वाच्य की क्रिया वाचक की क्रिया से भिन्न है । वाचक बोध कराने की पर्याय में होता है और वाच्य ज्ञेय पर्याय में)।
वाच्य वाचकभाव की प्रतीति तर्क के द्वारा होती है | एक आदमी ने अपने सेवक से कहा- 'रोटी लानो' । सेवक रोटी लाया । एक तीसरा व्यक्ति जो रोटी को नही जानता, वह दोनों की प्रवृत्ति देख कर जान जाता है कि यह वस्तु 'रोटी' शब्द के द्वारा वाच्य है। इसकी व्याप्ति यो बनती है—"वस्तु के प्रति जो शब्दानुसारी प्रवृत्ति होती है, वह ब्राच्य वाचक भाव वाली