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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
(ग) वह उससे छोटा है।
इसमें दोनो परोक्ष हैं।
तर्क
अन्वय व्याप्ति
नैयायिक तर्क को प्रमाण का अनुग्राहक या सहायक मानते हैं 1 बौद्ध इसे अप्रमाण मानते हैं। जैन-दृष्टि के अनुसार यह परोक्ष-प्रमाण का एक भेद है। यह प्रत्यक्ष में नहीं समाता। प्रत्यक्ष से दो वस्तुओं का ज्ञान हो सकता है किन्तु वह उनके सम्बन्ध में कोई नियम नहीं बनाता।
यह अमि है, यह धुंआ है-यह प्रत्यक्ष का विषय है किन्तु :(१) धूम होने पर अमि अवश्य होती है। । (२) धूम अमि में ही होता है। (३) अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता। व्यतिरेक व्याप्ति -यह प्रत्यक्ष का काम नही, तर्क का है।
हम प्रत्यक्ष, स्मृति और प्रत्यभिज्ञा की सहायता से अनेक प्रामाणिक नियमो की सृष्टि करते हैं। वे ही नियम हमें अनुमान करने का साहस बंधाते हैं। वर्क को प्रमाण माने बिना अनुमान को प्रामाणिकता अपने आप मिट जाती है। तर्क और अनुमान की नींव एक है। मेद सिर्फ ऊपरी है । तर्क एक व्यापक नियम है और अनुमान उसका एकदेशीय प्रयोग । तक का काम है, धुएं के साथ अग्नि का निश्चित सम्बन्ध बताना। अनुमान का काम है, उस नियम के सहारे अमुक स्थान में अमि का शान कराना (तर्क से धुएं के साथ अग्नि की व्याति जानी जाती हैं किन्तु इस पर्वत में 'अग्नि हैं यह नहीं जाना जाता। 'इस पर्वत मे अग्नि है-यह अनुमान का साध्य है।) तर्क का साध्य केवल अग्नि (धर्म) होता है। अनुमान का साध्य होता है-"अग्निमान् पर्वत” (धर्मी)। दूसरे शब्दों में वर्क के साध्य का आधार अनुमान का साध्य बनता है।
न्याय की तीन परिधियां हैं(१) सम्भव-सत्य।