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निषेध-साधक - अनुपलब्धि हेतु
प्रतिषेध्य से विरुद्ध होने के कारण जो हेतु, उसका प्रतिषेध्य सिद्ध करता
है, वह अविरुद्धानुपलब्धि कहलाता है ।
जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
विरुद्धानुपलब्धि के सात प्रकार हैं :
(१) विरुद्ध स्वभाव - अनुपलब्धि :साध्य - यहाँ घट नहीं है ।
हेतु — क्योंकि उसका दृश्य स्वभाव उपलब्ध नहीं हो रहा है ।
चतु का विषय होना घट का स्वभाव है । यहाँ इस अविरुद्ध स्वभाव से
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ही प्रतिपेध्य का प्रतिषेध है ।
(२) अविरुद्ध व्यापक अनुपलब्धि :
साध्य --- यहाँ पनस नही है ।
हेतु — क्योकि वृक्ष नहीं है ।
वृक्ष व्यापक है, पनस व्याप्य । यह व्यापक की अनुपलब्धि में व्याप्य का प्रतिषेध है ।
(३) विरुद्ध कार्य अनुपलब्धि :
साध्य - यहाँ अप्रतिहत शक्ति वाले बीज नहीं है ।
हेतु - क्योकि अकुर नहीं दीख रहे हैं ।
यह विरोधी कार्य की अनुपलब्धि के कारण का प्रतिपंध है।
(४) विरुद्ध- कारण - अनुपलब्धि :
साध्य -- इस व्यक्ति मे प्रशमभाव नहीं है ।
हेतु — क्योंकि इसे सम्यग् दर्शन प्राप्त नही हुआ है।
प्रशम नाव — — सम्यग् दर्शन का कार्य है । यह कारण के अभाव में कार्य का प्रतिषेध है ।
(५) अविरुद्ध - पूर्व चर अनुपलब्धि :
माध्य - एक मुहूर्त्त के पश्चात् स्वाति का उदय नहीं होगा ।
हेतु - क्योकि अभी चित्रा का उदय नही है ।
यह चित्रा के पूर्ववर्ती उदय के अभाव द्वारा स्वाति के उत्तरवर्ती उदय वा प्रतिषेध है ।
(६) अविरुद्ध-उत्तरचर- अनुपलब्धि :
साध्य - एक महत्तं पहले पूर्वाभाद्रपदा का उदय नहीं हुआ था !