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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
३ स्वार्थ और परार्थ
अनुमान वास्तव में 'स्वार्थ' ही होता है। अनुमाता श्रोता को वचनात्मक हेतु के द्वारा साध्य का ज्ञान कराता है, तब वह वचन श्रोता के अनुमान का कारण बनता है । वचन-प्रतिपादक के अनुमान का कार्य और श्रोता के अनुमान का कारण वनता है। प्रतिपादक के अनुमान की अपेक्षा कार्य को कारण मानकर (कारण में कार्य का उपचार कर) और श्रोता के अनुमान की अपेक्षा कारण को कार्य मानकर (कार्य में कारण का उपचार कर) वचन को अनुमान कहा जाता है। व्याप्ति
ब्यासि के हो भेट है-अन्तर्व्याप्ति और बहिर्व्याप्ति । पक्षीकृत विषय में ही साधन की साध्य के साथ व्याति मिले, अन्यत्र न मिले, यह अन्ताप्ति होती है । आत्मा है यह हमारा पक्ष है । 'चैतन्यगुण मिलता है, इसलिए वह है' यह हमारा साधन है । इसकी व्याति यो वनती है जहाँ-जहाँ चैतन्य है, वहाँवहाँ आत्मा है। किन्तु इसके लिए दृष्टान्त कोई नहीं बन सकता। क्योकि यह व्याति अपने विषय को अपने आप में समेट लेती है। उसका समानधर्मा कोई बचा नही रहता बहिया॑ति में साधर्म्य मिलता है। पक्षीकृत विषय के सिवाय भी साधन की साध्य के साथ व्याति मिलती है । पर्वत अग्निमान् है'यह पक्ष है । धूम है, इसलिए वह अमिमान् है-यह साधन है । 'जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ वहाँ अमि है'-इसका दृष्टान्त बन मकता है जैसे रसोई घर या अन्य अग्निमान् प्रदेश । हेतु-भाव और अभाव
अविचार होते हैं :(१) प्राक् । (२) प्रध्वस । (३) इतरेतर । (४) अत्यन्त । (भाव जैसे वस्तु स्वरूप का साधक है, वैसे अभाव भी । भाव के विना वस्तु की सत्ता तहीं बनती तो अमाव के बिना भी उसकी सत्ता स्वतन्त्र नहीं बनती।